SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय || पान ३६२ ॥ वचनही चाहिये, समानजाति के कहनेतें बहुकी प्रतिपत्ति होय है । ताका समाधान - जो इन च्यारिही निकाय में अंतर्भेद इन्द्र सामानिक आदि तथा आयु आदिका भेदतें बहुत हैं, तिनके जानने के अर्थ बहुवचन है । तहां देवगतिनामकर्मके उदयकी सामर्थ्यतें भेदरूप समूह हो, ताकूं निकाय कहिये हैं । ऐसें च्यारि निकाय इन देवनिके हैं । ते कौन ? भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क वैमानिक ऐसें ॥ आ तिनके लेश्याका नियमके अर्थि सूत्र कहै हैं ॥ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः ॥ २ ॥ याका अर्थ - आदितैं लै तीनि निकाय जे भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क तिनके पीतान्त कहिये कृष्ण नील कापोत पीत ऐसें चारि लेश्या हैं। यहां आदित ऐसा कहते तो अन्तमध्यके मति जानूं । बहुरि दोय तथा एकके निषेधके अर्थ त्रिशब्द है । बहुरि लेश्या छह हैं तिन चारिका ग्रहण है । यातें पीतान्त ऐसा वचन है । पीत है अन्त जिनके ऐसा कहैतैं चारि श्याका ग्रहण भया । तब ऐसा अर्थ भया, जो, भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क इनि तीनि निकायनिके जे असुरदेव तिनके कृष्ण नील कापोत पीत ए च्यारि लेश्या हैं ! For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy