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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३५८ ॥ कायस्थिति इन सर्वनिकी अंतर्मुहूर्तमात्र है । बहुरि देवनारकीनिकी भवस्थिति है सोही कारास्थिति है । देवसूं देव होय नाही, नारकीसूं नारकी होय नाही ।। - इहां कोई पूछ , जो, जीवतत्त्वका निरूपणका प्रकरणविर्षे द्वीपसमुद्रनिका निरूपणका कहा प्रयोजन? ताका समाधान- जो, इन द्वीपसमुद्रनिकै आधार मनुष्यलोक है । तहां क्षेत्रविपाककी कर्मप्रकृतिके विशेषके उदयतें अढाई दीपहीके विर्षे मनुष्य उपजे हैं। तिनके निरूपणके अर्थि दीपसमुद्रनिका निरूपणभी प्रयोजनवान है। जो इनका निरूपण न करिये तो मनुष्य तिर्यंच जीव इनके आधार हैं सो जीवतत्त्वका विशेष निरूपण कैसे बनें ? बहुरि विशेषनिरूपणविना जीव. तत्त्वका श्रध्दान कैसें होय ? बहुरि श्रध्दानविना सम्यक्चारित्र कैसे होय? ऐसे होते त्रयात्मक मोक्षमार्गकी कथनी कैसे बनें ? तातें स्याद्वादीनिकै सर्वनिरूपण युक्त है ॥ . बहुरि इहां ईश्वरवादी कहै है, जो, ऐसा अधोलोक मध्यलोकका निरूपण कीया सो ऐसी रचना तो कोई बुद्धिमानकी करी हो है । तातें इस रचनाका कर्ता ईश्वर है । तहां प्रथम तौ शरीर सहित ईश्वर मानै है ताकू कहिये, जो, जगत् तो शरीखाले ईश्वरने कीया । बहुरि ईश्वरकै शरीर कोंन कीया ? जो अन्यशरीरके संबंधतें शरीर भया कहै, तो अनवस्थादृषण आवै है । बहुरि जो For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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