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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३५६ ॥ कुमुद, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, कमलांग, कमल, त्रुट्यंग, त्रुट्य, अटटांग, अटट, अममांग, अमम, हुहूंग, हूहू, लतांग, लता, महालता इत्यादि संज्ञा जाननी । काल है सो वर्षनिकी गणनाकरि तो संख्यातौ जानिये । संख्यातते परे असंख्यात है पल्योपम सागरोपम इत्यादि। यातें परै अनंतकाल है। अतीत अनागत है सो सर्वज्ञके प्रत्यक्ष है । बहुरि भावमान पांचप्रकार ज्ञान सो पहले कहे सो जानने । इहां पल्यके कथनकी उक्तं च गाथा है ताका अर्थ- व्यवहार उद्धार अभ्दा ऐसें तीनि पल्य हैं सो जानने । तहां व्यवहार तो संख्याकी उत्पत्तिमात्र जानने है । बहुरि उध्दारतें द्वीप समुद्र गणिये । बहुरि अध्दातें कर्मनिकी स्थिति वर्णन करी है ॥ आगें कहे हैं, जो, ए उत्कृष्ट जघन्य स्थिति मनुष्यनिकी कही, तेसैही तिर्यचनिकी है ताका सूत्र ॥तिर्यग्योनिजानां च ॥ ३९॥ ___ याका अर्थ-तिर्यंचनिकी योनि तियंचगतिनामा नामकर्मके उदयकरि जन्म होय सो है, तिस योनिवि उपजे होय ते तियंचजीव हैं । तिनकी आयुकी स्थिति उत्कृष्ट तौ तीनि पल्यकी है । जघन्य अंतर्मुहर्तकी है । मध्य नानाभेद है ॥ ____ इहां विशेष जो, तिथंच तीनि प्रकार हैं । एकेंद्रिय विकलत्रय पंचेन्द्रिय । तहां एकेन्द्रियनि For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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