SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३४० ॥ भोजन अमृत हो जाय तथा जिनिका वचन प्राणीनिकूं अमृतकीज्यों उपकार करै सो अमृतश्रावी है । ऐसें रसऋद्धि छह प्रकार है || बहुरि आठमी क्षेत्रऋद्धि दोय प्रकार है । तहां लाभांतरायके क्षयोपशमका अतिशयवान् मुनि तिनिकूं जिस भोजनमैंसूं भोजन दे तिस भाजन में चक्रवर्तिको कटक भोजन करें तौ वै दिनि वीतै नही सो अक्षीणमहानस है । बहुरि मुनि जहां वसै तहां देव मनुष्य तिर्यंच सर्वही जो आय वसै तौ परस्पर बाधा होय नांही सकडाई न होय सो अक्षीण महालय है । ऐसें एऋद्धि जिनिकै प्राप्त होय ते ऋद्धिप्राप्त आर्य हैं ।। बहुरि म्लेच्छ दोय प्रकार हैं अंतदीपज कर्मभूमिज । तहां अंतर्दीपज तौ लवणसमुद्रकी आठ दिशा विदिशाविषै तथा आठही तिनिके अंतरालनिविषै तथा हिमवान शिखरी कुलाचल तथा दोऊ विजयार्द्धके पूर्वपश्चिम दोऊ दिशानिके अंतविषै आठ हैं । ऐसें चौईस अंत हैं तहां वसै हैं । तहां दिशानिके द्वीप तौ जंबूदीपकी वेदीतें पांचसैं योजन परै समुद्रमैं हैं तिनका सौ सौ योजनका विस्तार है । बहुरि विदिशानिकै द्वीप वेदीनितै पांच सें योजन पर हैं । तिनिका विस्तार पचावन पचावन योजनका है । बहुरि दिशा विदिशानि के अंतराल के दीप वेदीतैं पांच पचास योजन परे हैं । तिनिका विस्तार पचास पचास योज For Private and Personal Use Only 48200125190
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy