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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३१७ ॥ ॥ प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृदः ॥ १५॥ याका अर्थ- पद्म द्रह है सो पूर्वपश्चिम दिशातें तौ हजार योजन लंबा है । बहुरि उत्तर दक्षिण दिशाने पांचसै योजनका विस्तार है । बहुरि वज्रमय याका तल है । बहुरि अनेक प्रकारके मणि तथा सुवर्ण तथा रजत तिनिकरि विचित्रित जाका तट है ॥ आगें याका अवगाह कहिये उंडाई जाननेकै अर्थि सूत्र कहै हैं ॥ दशयोजनावगाहः ॥ १६॥ याका अर्थ-"पद्मदहकी उंडाई दश योजन है ॥ आगें, तिस द्रहविर्षे कमल है, ताका सूत्र कहै हैं तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥ १७॥ याका अर्थ- या द्रहमैं एक योजन प्रमाण कमल है । तामें कोश कोशके लंबे तौ पत्र हैं। | बहुरि दोय कोशके चौडी बीचिकी कर्णिका है। बहुरि जलके तलतें दोय कोश ऊंचा नाल है । बहुरि एताही पत्रनिकी मोटाई है ॥ आगें अन्य द्रहनिकी लंबाई चौडाई तथा कमलांकी लंबाई चौडाई जनावनेके अर्थि सूत्र कहै हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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