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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २८५॥ है सादि संबंधभी है । तहां कार्यकारणका अनादिसंतानकी अपेक्षा तौ अनादिसंबंधरूप है। बहुरि विशेषकी अपेक्षा सादिसंबंध है । सो बीजवृक्षकीज्यों जानने । जैसें औदारिक वैक्रियिक आहारक जीवकै कदाचित् होय है, तैसें तैजसकार्मण नांही हैं। ये नित्यसंबंधरूप हैं । संसारके क्षयपर्यंत संबंध रहै है । जिनिके मतमें शरीर अनादिसंबंधही है तथा सादिसंबंही है ऐसा पक्षपात है तिनिकै अनादिसंबंध है। तहां अंत नाहीं। तब मुक्त आत्माका अभावका प्रसंग भया । बहरि सादिसंबंध होतें शरीर नवीन भये । पहली आत्मा शुद्ध ठहन्या; तब नवीन शरीरका धारण काहेतें भया ? ऐसे दोष आवै है ॥ आगें पूछे है, ए तैजस कार्मण शरीर कोईक प्राणीकै होय है कि अविशेष है? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं ॥सर्वस्य ॥४२॥ याका अर्थ- ए दोऊ शरीर सर्व संसारी जीवनिकै हो हैं ॥ इहां सर्व शद्ध निरवशेषवाची है । समस्त संसारी जीवनिकै तैजस कार्मण दोऊ शरीर हैं ॥ आगें, ते औदारिकादि ५ शरीर सर्वसंसारी जीवनिकै अविशेषकरि होय हैं, तहां सर्व एकही काल होय हैं ऐसा प्रसंग होते जे शरीर एकजीवकै एककाल संभवै तिनिके दिखावनेके अर्थि सूत्र कहै हैं aasarreralscreritsarezar sitertairseratorrertists For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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