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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २६८ ॥ नाम देहका है । ताकै अर्थि जो गति कहिये गमन करे, ताकू विग्रहगति कहिये । अथवा विग्रह कहिये व्याघात कर्मका आस्रव होतेंभी नोकर्मपुगलका निरोध कहिये रुकना । ऐसें विग्रहकरि गमन करे सो विग्रहगति है । बहुरि सर्वशरीरनिका बीजभूत उत्पत्ति करणहारा शरीर सो कार्मण शरीर है । ता कर्म कहिये । बहुरि योग वचन मनकायके पुद्गलवर्गणा है निमित्त जाईं ऐसा आत्माके प्रदेशनिका चलाचलपणां है । तिस कार्मणशरीरकरि कीया जो योग, सो विग्रहगतिविर्षे है । ऐसा विग्रहगतिविर्षे कर्मका ग्रहणभी होय है । बहुरि देशांतरका संक्रमणभी होय है ॥ इहां विशेष, जो, कोई कोई कहै है, आत्मा तो सर्वगति है ताकै गमनक्रिया नाही। बहुरि पूर्वशरीर छूट्या तब उत्तरशरीर धान्या तब अंतरालभी नाही। ताका समाधान, जो, आत्मा गमनक्रियासहित प्रत्यक्ष दीखे है । जातें आत्मा शरीरप्रमाण है सो तो अनुभवगोचर है । बहुरि शरीरकी साथि याका गमन है । बहुरि अन्यशरीरग्रहण करै तब अंतरालमें कार्मणशरीर न होय तौ तहां मुक्तजीव वत् कर्मका ग्रहणभी न होय, तव नवीन शरीर काहेदूं धारे? तातें गमनभी करै है अरु अंतराल में कार्मणयोगभी है । यह निश्चय है । आगें, देशांतरनें गमन करता जे जीवपुद्गल तिनिकै गमन श्रेणीबंध सूधा होय है कि जैसे GAGANPAGAPANPRAFARPANGACANPARENICIPAGGAFARPAGGAFARPAPGAGANPATRO For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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