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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ।। सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ।। पान २६६ ॥ ॥सज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ याका अर्थ- पंचेंद्रिय जीवनिविर्षे जे मनसहित हैं ते संज्ञी हैं | मन तो पूर्व कह्या, सो जाननां । तिस मनकरि सहित होय ते समनस्क ते संज्ञी हैं । संज्ञीके कहनेकी सामर्थ्यहीनै अवशेष संसारी जीव रहे ते असंज्ञी हैं ऐसा सिद्ध भया । तातें याका न्यारा सूत्र न कह्या । इहां कोई तर्क करै है, जो, संज्ञी ऐसा कहनेतेही अर्थ तौ आय गया । ताका समनस्क ऐसा विशेषण तौ अनर्थक है । जाते मनका व्यापार हितकी प्राप्ति अहितका परिहारकी परीक्षा करना है, सो संज्ञाभी सोही है । ताका समाधान, जो, ऐसा कहनां युक्त नाही । जाते संज्ञा ऐसा शब्दके अनेक अर्थ हैं तहां व्यभिचार आवै है। तहां प्रथमतौ संज्ञा नामकू कहिये है । सो नामरूप संज्ञा जाकै होय सो संज्ञी ऐसा कहते सर्वही प्राणी नामसहित हैं तहां अतिप्रसंग भया । बहुरि कहै संज्ञा संज्ञानं कहिये भले ज्ञानकुं कहिये है । तो तहांभी अतिप्रसंग है । जातें संज्ञान सर्वही प्राणिनीकै है । बहुरि आहार आदि अभिलाषकुंभी संज्ञा कहिये है। तहां भी अतिप्रसंगही होय । जाते यहभी सर्वही प्राणी पाईये है । तातें समनस्कविशेषण सफल है । बहुरि ऐसै कहे गर्भके विर्षे तिष्ठता जीव तथा अंडेविर्षे तिष्ठता तथा मूर्छित भया तथा सूता इत्यादि अवस्थारूप प्राणीनिकै हित अहितकी परीक्षाका For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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