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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३८ ॥ | जीवकै अर कर्मकै एकत्वपणा है वहरि लक्षणभेदते नानापणा है । तातें जीवकै अमूर्तिकभाव है , सो अनेकांतते सधै है ॥ ऐसें जीवके पंचभाव कहनेते सांख्यमती आदिक आत्माकू शुद्धही एकांत. करि माने हैं, तिनिका निराकरण भया।जातें सर्वथा शुध्दही होय , तो संसार बंध मोक्ष तथा मोक्षका उपाय आदिकी कथनी सर्व मिथ्या ठहरै । बहुरि पंचभावरूप आत्मा कहनेते स्यादादनयकार बंधमोक्षादि सर्वही कथंचित्प्रकार सिद्ध होय है । ऐसें सात सूत्रनिकरि जीवके पंचभावनिका वर्णन कीया ॥ आगै, जो बंधप्रति एकत्व है सो लक्षणभेदतें बंध अरु आत्मा जुदे जाने जाय हैं । सो जीवका कहा लक्षण है ? जातें जुदा जानिये सो कही ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं-- ॥ उपयोगो लक्षणम् ॥८॥ ___याका अर्थ- उपयोग है सो जीवका लक्षण है ॥ उभयनिमित्त कहिये बाह्य अभ्यंतरकारण निके वशर्ते उपज्या जो चैतन्यकै अनुविधायी कहिये जुड्या हुवा चैतन्यहीका परिणाम सो उपयोग है । तिसकरि आत्माकै बंधप्रति एकपणाकू होतेभी आत्मा जुदा लखिये है । जैसैं सोना रूपाका एकपिंड होतभी पीत श्वेतवर्ण आदिकरि भेद जान्या जाय है तैसें भेद जानिये है ॥ इहां तत्त्वार्थवार्तिक टीकाके अनुसार कछु लिखिये है । तहां बाह्य अभ्यंतर दोय कारण कहे तहां For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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