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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २१४ ॥ वहार है । बहुरि एकही द्रव्य परके निमित्ततें विकार उसही सतमें भया था ताकी अपेक्षा लेकरि संज्ञादिककरि भेद कहै है । तहां अशुद्धसद्भूतव्यवहार है । ऐसें दोय भेद सद्भुतव्यवहारके भये ।। | बहुरि अन्यवस्तूका गुण अन्यके कहै सो असद्भूतव्यवहार है । ताके तीन भेद । तहां जैसै | बहुत पुद्गलके परमाणुद्रव्य मिलि एक स्कंध नाम पर्याय बण्या ताकू कहे 'ए पुद्गलद्रव्य है , तहां है | समानजातीय असदुभतव्यवहार भया । बहुरि जहां एकेंद्रियादिक देह ते पुद्गलस्कंध हैं तिनिळू जीव कहै । तहां असमानजातीय असद्भूतव्यवहार भया । बहुरि जहां मतिज्ञान• मूर्तिक कहनां | जातें मूर्तिकतें उपजै है तथा रुकै है। तहां मतिज्ञान तौ अमूर्तिक जीवका धर्म है । बहुरि मूर्तिकपणां पुद्गलका धर्म है । तहां मिश्र असद्धृतव्यवहार भया । तथा ज्ञेयविर्षे ज्ञान है ऐसैं कहना तहां ज्ञेय जीव अजीव दोऊ है । तातेंभी मिश्र भया । ऐसें तीन भेद असद्भूतव्यवहारके भये ॥ बहुरि उपचारव्यवहारकेभी तीन भेद हैं । तहां द्रव्य गुण पर्यायके परस्पर उपचार करिये तब भेद होय है । तहां एकप्रदेशी परमाणूकू बहुप्रदेशी पुद्गलद्रव्य कहनां तहां द्रव्यविर्षे पर्यायका | उपचार भया । बहुरि महल• श्वेत कहनां तहां द्रव्यवि गुणका उपचार भया । बहुरि मतिज्ञान ज्ञान• कहनां तहां गुणके विर्षे पर्यायका उपचार भया । बहुरि स्कंधपर्यायकू पुद्गलद्रव्य कहनां तहां | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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