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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय ॥ पान २१२ ॥ सप्तभंगी हो है । बहुरि शब्द के काल आदि छह भेदनिकरि चौवन सप्तभंगी होय है । बहुरि समभिरूढकरि नव एवंभूतनयकरि नव । ऐसे ये एकसौ सतरा सप्तभंगी भई । ऐसे संग्रहके दोय भेदनितें व्यवहारादिके भेदनिकर बाईस, बहुरि व्यवहारकै दोय भेदनितें ऋज्रसूत्रादिकके अठारह, बहुरि ऋजुसृत्र के शब्दभेदकार छह, बहुरि शब्द के भेदनिके समभिरूढ एवंभूतकरि बारह, ऐसे अठ्ठावन होय सब मिलि एकसौ पचहत्तरि भेदनिकी अपेक्षा भये, दोऊ मिलि एकसौ छिनवै भये । बहुरि उलटे करिये तब तेही भंग होय है । ऐसेही उत्तरोत्तर भेदनिकरि शब्दथकी संख्यातसप्तभंगी होय है । तहां पूर्व प्रमाणसप्तभंगीविषैभंगनिका विचार कह्या । तैसै इहांभी जाननां ॥ विशेष इतनां - जो, तहां जिस पदार्थकं साधनां ताका काल आदि आठ भेदनिकरि सकलादेश करनां । इहां तिनका विकलादेश करनां । जिस धर्म के नामकरि पदार्थ कूं कह्या तिसही धर्मविषै सर्वधर्मनिका काल आदिकर अभेदवृत्ति करनां सो तौ सकलादेश है । बहुरि जिस धर्महीका काल आदि' कहां दुसरे धर्म भेदवृत्ती कहनां तहां विकलादेश हो है । सो पूर्वै उदाहरणकरि कह्याही है । जैसे नैगमन प्रस्थका संकल्प कीया तहां संग्रहनय कहै यहु प्रस्थ संकल्पमात्र नांही सद्रूप है । तहां विधिनिषेध भया । तब कथंचित् प्रस्थ, कथंचित् अमस्थ, कथंचित् प्रस्थाप्रस्थ, कथंचित् अवक्तव्य For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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