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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra CONCEN eBreed www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदजाकृता ॥ प्रथम अध्याय || पान २०२ ॥ व्यवहारका अभावही है । तातें वर्तमानही व्यवहार प्रवर्ते है । इहां कोई कहै है अतीत अना गतका भी लोकवि व्यवहार है सो कैसे चलै? ताकूं कहिये या नयका तौ यही विषय है सो दिखाया । बहुरि लोकव्यवहारतौ सर्वनयके समूहकरि साधने योग्य है। जहां जैसी नयका कार्य होय तहां तैसा नय ग्रहण करनां । या नयका सर्वथा एकांत अभिप्राय बौद्धमती करे है । द्रव्यकाती लोप करे है | क्षणस्थायी वस्तु कहै है । तिनिकै सर्वव्यवहारका लोप आवै है | आ शब्द का लक्षण कहे हैं । लिंग, संख्या, साधन, इत्यादिकका व्यभिचारकूं दूरि करने विषै तत्पर सो शब्दनय है । तहां प्रथमही लिंगव्यभिचार स्त्रीलिंगविषै पुरुषलिंग कहना, जैसे, तारका यह स्त्रीलिंग है ताकूं स्वाति ऐसा पुरुषलिंग कहना । बहुरि पुरुषलिंगविषै स्त्रीलिंग कहना, जैसे, अवगमः ऐसा पुरुषलिंग है ताकूं विद्या ऐसा स्त्रीलिंग कहनां । बहुरि स्त्रीलिंगविषै नपुंसक - लिंग कहनां, जैसे, वीणा ऐसा स्त्रीलिंग है ताकूं आतोद्य ऐसा नपुंसकलिंग कहनां । बहुरि नपुंसकलिंगवि स्त्रीलिंग कहनां, जैसें, आयुध ऐसा नपुंसकलिंग है, तांकूं शक्ति ऐसा स्त्रीलिंग कहनां । बहुरि पुरुषलिंगविषै नपुंसकलिंग कहना, जैसैं पट ऐसा पुरुषलिंग है, ताकूं वस्त्र ऐसा नपुंसकलिंग कहनां । बहुरि नपुंसकलिंगविषै पुरुषलिंग कहनां, जैसें, द्रव्य ऐसा नपुंसकलिंग है, ताकूं परशु ऐसा For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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