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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृतः ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १८६ ॥ अपेक्षाभी सांकलीके भक्षण करतें रूपादिक पांचका ज्ञान एककालही दीखे है वर्ण सांकलीका दीखे | है, स्वादु लेही है । गंध वाका आवही है । स्पर्शभी सचीकणा आदि जानैही है । भक्षण करते शब्द होय है । सो सुणेही है। ऐसें पांचका ज्ञान एककालभी देखिये है। ताईं कहिये, जो, इहां उपयोगका फिरणकी शीघ्रता होतें कालभेद न जान्या जाय है । जैसें कमलका पत्र दोय च्यारिमें सूईका प्रवेश होते कालभेद जान्या न जाय अरु कालभेद हैही । तैसें इहांभी जाननां ।। आगें, कहे जे ज्ञान ते ज्ञानही नाम पावै हैं कि अन्यथाभी हैं? ऐसे प्रश्न होते सूत्र कहै हैं ॥ मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥ याका अर्थ- मति रुत अवधि ए तीन ज्ञान हैं ते विपर्ययस्वरूपभी हो हैं । चकारतें सम्यकभी हैं ॥ विपर्यय कहिये मिथ्या, जातें इहां सम्यका अधिकार है । बहुरि चशद समुच्चयार्थ है विपर्ययभी है, सम्यक्भी है ऐसें भेले कहे है । इहां कोई पूछे है, इनिकै विपर्यय काहे होय है? | ताकू कहै हैं- मिथ्यादर्शनके उदयकरि सहित एक आत्माविर्षे समवायरूप एकता होय है, ताते विपर्यय कहिये । जैसे कडा तूंवा गिरिसहित होय तामें दूध क्षेपिये तो वह दूधभी कडा हो जाय । १ बडी पुरी. For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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