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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृतः ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १८४ ॥ | कह्या है । इहां यह विशेष अर्थ जाननां, जो कोई अन्यवादी कहे है सर्वज्ञपुरुष आत्माही• जाने है। इस सिवाय पदार्थ कोई नांही । ऐसे कहनेवालेका निषेधकै अर्थि सर्वकू जाने है ऐसा | कह्या है । बहुरि द्रव्यके बहुवचन कहनेते बहुतद्रव्यनिकी सिद्धि भई । बहुरि पर्यायशब्दकै बहुवचन कहने केई वादी वर्तमान पर्यायके ज्ञानीहीकू सर्वज्ञ कहै है । ताका निषेध है। बहुरि | जो सर्वद्रव्यका ज्ञाता न होय तौ सर्वके उपकाररूप उपदेश कैसे प्रवर्ते ? जातें धर्मअधर्मका स्वरूप अतिसूक्ष्म है। सो सर्वका ज्ञाताविना यथार्थ धर्मअधर्मका स्वरूप कैसे जाने । बहुरि ज्ञान | जीवनिविर्षे हीनाधिक दीखे है । सो याहीतें जानिये है कोई जीवविर्षे उत्कृष्ट अधिकतारूपभी | है। ऐसे अनुमानमें केवलज्ञानका अस्तित्व सिद्ध होय है। ऐसा ज्ञान इंद्रियादिकका सहायविना सर्वद्रव्यपर्यायनिकू एककाल जाने है । ऐसा निर्वाध सिद्ध होय है । ताहीकै वीतरागपणा निर्दोषपणां संभवै है । बहुरि तिसहीतें हेय उपादेय पदार्थका यथार्थ उपदेश प्रवर्ते है ऐसा निश्चय करनां ॥ आगें पूछे है, मत्यादिज्ञानका विषयनियम तौ वर्णन कीया, परंतु यह न जान्यां, जो एक आत्माविर्षे एककाल अपने अपने निमित्तके निकट होते प्रवर्तते जे ज्ञान ते केते होय | हैं? ऐसा प्रश्न होते सूत्र कहै हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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