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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान १७५ ॥ ఆలండలండirecteకలగలందులకు सप्रतिपात अप्रतिपात तथा देशावाध परमावधि सर्वावधि ए सर्व अनुगामी आदि छह भेद कहे तिनमें अंतर्भूत जानने ॥ तहां देशावधि तो अनुगामीभी बहुरि अननुगामीभी है । बहुरि परमावधि सर्वावधि केवलज्ञान उपजै तहांतांई अनुगामीही है । बहुरि देशावधि तौ वर्धमानभी है हीयमानभी है । बहुरि परमावधि वर्धमानही है । बहुरि देशावधि तौ अनवस्थितही है । या प्रकार अवधिज्ञान तो कह्या ॥ बहुरि ताके लगताही मनःपर्ययज्ञान कहनेयोग्य है, ताके भेदसहित लक्षणका कहनेका इच्छक आचार्य सूत्र कहै हैं ॥ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥ २३ ॥ याका अर्थ-- ऋजुमति तथा विपुलमति ऐसै दोय भेदरूप मनःपर्ययज्ञान है ॥ ऋज्वी कहिये सरल तथा वचन काय मनकरि कीया अरु परके मनकेवि प्राप्त भया ऐसा जो पदार्थ ताके | जानने” निपजाई जो मति कहिये ज्ञान जाकै होय, ताकू ऋजुमति कहिये । बहुरि विपुला कहिये वक्र तथा वचन काय मनकरि कीया अरु परके मनविर्षे प्राप्त भया जो पदार्थ ताकरि नाही | निपजाई स्वयमेवही भई ऐसी जो मति कहिये ज्ञान जाकै होय, ताकू विपुलमति कहिये । याक For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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