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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १२९ ॥ जहां जिसप्रकार विसंवाद न आवै तहां तैसैं प्रमाणता । सौ कारकै विपर्ययज्ञान है तहां ताकै बाधा | | विसंवाद न आवै तेते प्रमाण ठहन्या । तथा काहूकै कालांतरमैं बाधा आवै । काइकै क्षेत्रांतरमैं बाधा | आवै । तथा केईकै कबहू बाधा न आवै । अर विशेषज्ञानीके ज्ञान में बाधा दीखे है । तहां जेतें बाधा न आवै तेते प्रमाण ठहरै है । सो सम्यग्ज्ञान तौ ऐसा चाहिये जो संशय विपर्यय अनध्यवसायरहित सर्वकाल सर्वक्षेत्र सर्वप्राणीनिकै समान होय । कोई प्रकार बाधा न आवै । जो जहां जैसैं अविसंवाद होय तहां तैसें प्रमाणता है यह वचन कैसे सिद्ध होयगा? ताका उत्तर- जो, सर्वथानिर्वाध तो केवलज्ञान है। मतिश्रुत है सो तो अपने विषयविभी एकदेशप्रमाण है । बहुरि अवधि मनःपर्यय है सो अपने विषयविर्षे सामस्यकरि प्रमाण है । अधिकविषयविर्षे प्रमाण l नाही। ताते च्यायोंही क्षयोपशमज्ञान प्रमाणभी है अप्रमाणभी है। तातें जिस विषयविर्षे निर्वाध साधै तहां तौ प्रमाण है । बहुरि जहां बाधा आवै तहां अप्रमाण है। जो ऐसे न होय | तौ केवलज्ञानही प्रमाण ठहरै। अन्यज्ञान अप्रमाण ठहरै। तो व्यवहारका लोप होय । तातें एकही | ज्ञान प्रमाणभी है अप्रमाणभी है। जैसे काहू पुरुषकै नेत्रविर्षे विकार था, ताईं एक चंद्रमाके | दोय दीखे, तहां निर्विकारनेत्रवालाकी अपेक्षा दोय चंद्रमाकी संख्या तौ सवाध भई । बहुरि || akteriesireezasobreatirneriSpreritsairserritsaptertair, For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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