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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय । पान ८८ ॥
संजीके अनुवादकरि संजीनिका चक्षुर्दर्शनिवत् । असंज्ञी सर्वलोक स्पर्शे हैं । तिनि दोऊनिकरि रहितका गुणस्थानवत् स्पर्शन है ॥
आहारकके अनुवादकरि आहारकनिका मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यंतनिका गुणस्थानवत् स्पर्शन है । सयोगकेवलीनिका लोकका असंख्यातवा भाग है । अनाहारकवि मिथ्यादृष्टि सर्वलोक | स्पर्श है । सासादनसम्यग्दृष्टि लोकका असंख्यातवा भाग अर चौदा भागमैसूं ग्यारह भाग देशोन स्पर्श है । सो छठी पृथिवीतें मध्यलोकमें उपजै, ताकै उत्पाद अपेक्षा तौ पांच राजू, अर अच्युततें मध्यलोकमें आय उपजै, ताकै उत्पाद अपेक्षा छह ऐसे ग्यारह राजू कहे मारणांतिक अपेक्षा बारह राजू होय है । परंतु मारणांतिकमें अनाहारक नांही । तातें उत्पाद अपेक्षा ग्यारह है । असंयतसम्यग्दृष्टि लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शे है । अर चोदह भागमैसूं छह भाग देशोन स्पर्शे है । सयोगकेवली लोकका असंख्यातवा भाग अर सर्वलोक स्पर्श है । अयोगकेवलीनिका लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्शन है । ऐसें स्पर्शनका व्याख्यान कीया ।
आगै कालका निरूपण करिये हैं । सो दोय प्रकार है । सामान्यकरि गुणस्थानविर्षे | विशेषकरि मार्गणानिवि । तहां सामान्यकरि मिथ्यादृष्टीका नानाजीवापेक्षा सर्वकाल है । एक
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