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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री भ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १३ यत:-श्रीमहानिशीथे-“दुप्पसहं जाव गच्छ मेरा नाइकमेयवा-" इति वचनात् ।। अथ साधूनामाचार:मूल-सम्मइंसणरत्ता, उज्झुत्ता चरण करण गुण गहणे । आगम मग्गणुलग्गा, भव भय भीया मुणी धन्ना ॥१४॥ सिरिवीरजिणिदेणं, गोयमपमुहाण एवमाइई ।। बारसवास सएहि, गएहि पन्नास अहिहेहि ॥ १५ ॥ साहूणं अनुन्नं, भेउ होही न इथ्य संदेहो । मह सासणंमि जाणह,महानिसीहमि भणियमिणं ॥१६॥ यदुक्तं-श्रीमहानिशीथे "से भयवं केवइएणं कालेणं प(हे) यडे कुगुरू होहंति ? ___ गोयमा ! इउय अद्धतेरसण्डं वाससयाणं साइरेगाणं समइकंताणं परउ भविस्संति । से भयवं केणं अटेणं ? गोयमा ! तकालं इड्डीरस सायगारवसंगए ममीकार अहंकारग्गीए अंतो संपज्झलितबोंदी अहमहंति कयमाणसे अमुणिय समय सम्भावे गणी भविहेति । एएणं अटेणं सो एवं विहे तकालं गणी भविस्संति, गोयमा ! एगते णं नो सव्वे !! " इति वचनात् ॥ मूल-तेणं संपइ दीसइ, पिहु पिहु गच्छेसु भिन्न आयारो । तथ्यवि जं जिणवयणाणु,-सारउ तं पमाणंति ॥ १७॥ किल्झइ गच्छायारो, भन्नइ नियनिय गुरूहि आइन्नो । नहु सुतं दूसिज्झइ, भूसिज्झइ तेहि जिणधम्मो ।। १८ ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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