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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद. जेथी प्राणीओ हणाय 'तेनुं नाम दंड' तेवा दंडने ग्रहण करे, पोताना बलने वधारवा खातर जो हुं तेम नहीं करूं तो मने बलनी प्राप्ति नहीं थाय एम विचारीने अथवा भयथी परमार्थने नहीं जाणता 'पापथी हं छटीश एम धारीने अनेक प्रकारना पाप आचरण करे अथवा द्रव्यनी आशाथी मोहितमनवाळा भविष्यमा हुं सुखी थइश एम धारीने अनेक आरंभ करे. ते बधुं 'ज्ञपरिज्ञाए' जाणीने 'प्रत्याख्यान परिज्ञाए' तेनो त्याग करीने 'मेधावी' -जाणेल छ हेय उपादेय जेणे एवो थयो थको उपर बताव्या ते कारणे जीवोनो घात पोते न करे, बीजा पासे न करावे अने कोइ करतो होय तो तेने पण सारं न जाणे ए मार्ग आर्योए एटले तीर्थकरोए कहेल छे." वळी श्रीआचारांगसूत्रना छठा अध्ययनना पांचमा उद्देशाने विषे जणावेल छ के-" रागादिरहित सम्यकदृष्टि आत्मा सर्वत्र जीवलोकने द्रव्यथी जाणीने दयाळु थयोथको धर्मनो उपदेश करे, क्षेत्रथी पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अने उत्तर विगेरे दिशी विभागोने जाणीने कृपाळु धर्मनो उपदेश करे, काळयी जावजीवसुधी अने भावथी राग-द्वेष विनानो थयोथको धर्म उपदेश करे. ते आ प्रमाणे:- सर्वजीवो दुःखना द्वेषी छे अने सुखनी इछावाला छे, माटे पोताना सरखा जाणवा' एम धर्मने कहेतो द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावे करी अथवा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी अने निर्वेदिनीकथा विशेषेकरी अथवा प्राणातिपात विगैरेनी विरती विशेषेकरी धर्मनो विभाग For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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