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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २१५ अध्ययनना त्रिजा उद्देशामां जणावेल छे के:-" ते साधु अथवा साध्वी निर्दोष एवा सिज्जा- संथाराने पाथरीने निर्दोष सिज्जा - संथारापर बेसवानी वांछा करे. ते साधु अथवा साध्वी निर्दोष सिज्जा - संथारा पर बेसवा पलाज मस्तकथी पग पर्यन्त कायाने पुंजे पुंजीने त्यार पछी सम्यक् यतना पूर्वकज निर्दोष सिज्जा - संथारा पर बेसे बेसीने त्यारपछी सम्यकूयतनापूर्वक निर्दोष सिज्जा - संथारापर सूए, ते साधु-साध्वी निर्दोष सिज्जा - संथारा पर सूते छते एक बीजाने हाथे करी हाथने, पगे करी पगने, कायाए करी कायाने स्पर्श न करे, एवी रीते स्पर्श कर्या विना सम्यक् यतनापूर्वक निर्दोष सिज्जा- संथारा पर सूए. ते साधु-साध्वी श्वास लेता, श्वास मूकता, खांसी करता, छींकता, बगासा खाता, ओडकार खाता अने वा संचार करतां पलाज मुख के अधिष्ठानने हाथे करी ढांके, ढांक्या पछी सम्यकू यतनापूर्वक श्वास ले यावत् वा संचार करे. " आवा सिद्धान्तना वचन होवाथी, आवी यतना बतावेल के. आवी यतनाथी सुतेलाने निद्रा करवी केम बने ! एवी रीते तो अने सम्यक् धर्म जागरिकावडे जागतो जिनेश्वरना उपदेशने सद्दहणा करतो थको यतनाथी सुए. १४०. उपयोगवाळो छतां पण दर्शनावरणीय कर्मना उदये करी निद्राथी व्याप्त थएला नेत्रवाळो, मारो आत्मा प्रमादथी छलायो, एम जाणी आ प्रकारे विचारणा करे. १४१. जे बुद्ध उपयोगवाळा, केवलज्ञानयुक्त एवा जिनवरेन्द्रो सुबुद्धि जागरिकाए जागे छे, ते For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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