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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद. तेमां शरीर संबंधी वस्त्रोनी पडिलेहणा करीने त्यारबाद एक खमासमण आपीने हे भगवन् ! वसति प्रमार्जना करूं "वसहि पमज्जेमि एम बोलीने वसतीनी प्रमार्जना करे. पछी काजो लइ. एकठो करी जो, विगेरेनो विधि सवारना विधिनी माफक इरियावहि पडिक्कमवा सुधी जाणवो. ७६ थी ७९. आ बीना श्रीउत्तराध्ययन मूत्रना छवीसमां अध्ययननी साड त्रीसमी गाथामां बतावेल छे. त्यार बाद एक खमासमणो आपीने बोले " इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पडिलेहणयं पडिलेहेमि" मने पडिलेहणा पडिलेहावोजी, त्यार बाद स्थापनाचार्यनी प्रमार्जना प्रमुख विनय करे, पछी पांच नमस्कारे करी स्थापनाचार्यने यथास्थाने स्थापीने. ८०-८१.गुरुना गुरु स्थापनाचार्य अने शेषबाकीनानां गुरु जे विद्यमान धर्माचार्य होय तेज जाणवा, तेनी आगल सर्व अनुष्ठान करवं, ते प्रमाणभूत कहेल छे. कारणके पूर्वाचार्योनो आवो वचन होवाथी,-"आ उपदेश दर्शन शुद्धिना माटे छे. गुरु विरहमां स्थापना गुरु जाणवा, जेम श्रीजिनविरहमां जिनबिंब सेवनानी विचारणा सफल थाय छे." ८२. त्यार पछी सुगुरु महाराजना मुखथी सूत्रमा कहेल विधिने जाणीने द्वादशावर्त्तवंदनक दइने पच्चख्खाणने करे.८३. द्वादशावतं कृतिकर्म श्रीसमवायांगसूत्रना बारमा समवायनी अंदर बतावेल छे, त्यां श्रीअभयदेवमूरिकृत वृत्तिमा बीर्जु वांदणुं " पादपतित एव समापयति" चरणमां पडयो थको समाप्त करे, एम जणावेल छे. अने श्री For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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