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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः श्रीसूयगडांगेऽध्ययनि ११ मे "हणं तं नाणुजाणिज्जा आयगुत्ते जिइंदिए।" इत्यादि गाथा-तेहनउ भाव, जे शत्रा गारादि करणहार साधुनई धमाधम विशेष पूछइ, तिवारी साधु अस्ति नास्ति बिहूं माहि एकइ न कहइ, मध्यस्थ भाषि रहइ । ए भाषा साधुनी छइ । तथा-वली श्रीसूयगडांगमाहि "धम्मपन्नवणा जा सा, तं तु संकंति मूढया । आरंभाइं न संकेति, अ वियत्ता अकोविया " ॥१॥ तथा-पुन:-"दयावरं धम्म दुगुंछमाणा वहाव धम्म पसंसमाणा ।" इत्यादि अनेक अक्षर छइ ॥ तथा-श्री ठाणांगे- "दोय ठाणाई अपरियाणित्ता । आया केवलि पन्नत्तं धम्म नो लभेज्ज सवणयाए । तंजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चे " इत्यादि । आरंभ अनइं परिग्रह जे अनर्थ इम न जाणइ ते केवली प्रणीत धर्म सांभलिवान लहइ । अनई जे आरंभनउ पञ्चक्खाण न करइ ते जीव नरकायु बांधइ, ते श्री आगममाहि ठामिठामि बोल्यउं छइ॥ " महारंभयाए महापरिग्गयाए।" इत्यादि स्थानक ४ श्री उपवाई उपांगि, श्रीठाणांगि, श्रीविवाहपत्ति प्रमुख सूत्रमा. हि छइ ॥ इणि कारणि जिहां आरंभ तिहां सावध, तिहां साधु मनि वनि कायाई प्रवर्तइ नही ॥ तथा-श्रीदशबैकालिकेऽध्ययनि ७ मेगाथा-" असच मोसं सच्चं च, अणवज्जमककसं। समुप्पेह-मसंदि, गिरं भासिज्ज पन्नवं ॥१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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