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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ पन्नाना बालावबोधनी आदिमां आ प्रमाणे जणावेल छे:"कल्याणवल्लीत तिवारिवाहं, श्रीसिद्धिदुर्ग प्रतिसार्थवाहम् । सकेवलं लोकदिनेशतुल्यं, श्रीवर्द्धमानं प्रयतः प्रणम्य ॥ १ ॥ श्रीमत्तपागच्छसरोमरालः, श्री साधु रत्नाभिवधर्मे शिष्यः ॥ प्रकीर्णकस्यास्य करोति वार्ता - रूपं प्रबन्धं किल पार्श्व चंद्रः ॥ २ ॥ यावत्तदुलभोजी-वर्षशतायुर्नरस्तद्विचारान् । ख्यातं प्रकीर्णकमिदं तन्दुलविचारिकं नाम्ना ॥ ३ ॥ " " आ बीना लखती वखते जे जे तेओश्रीनी कृतिओ हाजर हती अने जोवामां आवी तेमांथी लखी जणावेल छे. कहेवानुं तात्पर्य ए छे के महापुरुषे पोताना नामनो लोभ खेल नथी, अने आगमवस्तु प्रसिद्ध करवामां कोइ जातनो संकोच धारण करेल नथी, निर्भयपणे सत्यवस्तु जणावेल छे. तेमनामां विद्वत्ता - प्राकृत, संस्कृत अने गुर्जरभाषामां कवित्वशक्ति, लेखनकळा अने तेनी शुद्धता, सूत्रोना बालावोध सरल भाषामा करवानी शक्ति अपूर्वं हती. तेमज जिनवचन पर श्रद्धा, ज्ञाननी जागृति- तीक्ष्णता तेने अंगे arataचारशक्ति अने चारित्रनी निर्मलता वगेरेमां अलौकिक हता. एमना ग्रन्थोनो अभ्यास, मनन चितवन जेमणे करेल होय अने पोते विचारशील विवेकी होय तो तेमने उपरनी attrओ आपो आप मालम पडीआवे एम छे, तेथी ए विषयमा विशेष लखवानी जरुर जणाती नथी. सज्जन दशे ते सार ग्रहण करी लेशे. कं छे के: For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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