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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थैक्यनिराकरणपरत्वात् । अन्यथा सत्तासामान्यस्य सर्वथानेकत्वे पृथक्त्वैकान्तपक्ष एवाहतस्स्यात् । तथा च "पृथक्त्वैकान्तपक्षेपि” इत्यादि स्वामिसमन्तभद्राचार्यवचनं तद्व्याख्यानभूतमकलंकादिवचनं च विरुद्ध्यते । अनेकव्यक्त्यनुगतस्यैकधर्मस्थानंगीकारे सादृश्यमेव दुर्वचनम् , यतस्तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वम् सादृश्यम् । यथा-चन्द्रभिन्नत्वे सति चन्द्रगताह्लादकरत्वादिमुखे चन्द्रसादृश्यम् , एवं घटयोरपि परस्परसाधर्म्य घटत्वरूपैकधर्ममादायैवोपपद्यते । अन्यथा साधारणधर्मासाधारणधर्मव्यवस्थैव न घटते । अनेकव्यक्तिवृत्तित्वमेव हि साधारणत्वम् । तस्मात्सत्त्वादिना सर्वस्यैक्यम् जीवादिद्रव्यभेदेनानेकत्वम् चोपपन्नम् । इसलिये तिर्यक् सामान्यरूप सत्त्वके प्रत्येक व्यक्तिमें भिन्न २ होनेसे सत्त्वरूपसे भी सब वस्तुकी एकता नहीं हो सकती ? ऐसी आशङ्का यदि की जाय तो उसके विषयमें कहते हैं एक तथा अनेकरूप सत्ता सामान्य जिन सिद्धान्तमें स्वीकृत है प्रतिव्यक्तिरूपसे सत्त्व अनेक होने पर भी स्वकीयरूपसे एक ही है। और पूर्व उदाहरणोंमें पूर्व आचार्योंके वचनोंसे जो सर्वथा एकत्व ही माना है उसीके निराकरणमें तात्पर्य है, न कि कथंचित् एकत्वके निराकरणमें । और ऐसा न माननेसे सर्वथा सत्ता सामान्यके अनेकत्व माननेसे पृथक्त्व एकान्त पक्षका ही आदर होगा । तब 'पृथक्त्व सामान्य पक्षमें भी' इत्यादि स्वामी समन्तभद्राचार्यका वचन तथा उसके व्याख्यानरूप अकलङ्क स्वामीके वचनकाभी विरोध आता है । तथा अनेक व्यक्तिमें अनुगत एक धर्मके अनङ्गीकार करनेसे सादृश्य ही दुर्वच है । क्योंकि उससे भिन्न हो तथा उसमें रहनेवाले धर्म पदार्थमें हों यही सादृश्य है । जैसे चन्द्रमासे भिन्न रहते चन्द्रगत आल्हाद करत्व वर्तुल आकारयुक्तत्व यह चन्द्र सादृश्य मुखमें है । इसी प्रकार घटत्वरूप एक धर्मको लेकर दो घटोंमें परस्पर साधर्म्य भी युक्त होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो यह इसका साधारण धर्म है, तथा यह इनमें असाधारण धर्म है, यह कथन नहीं बन सकता । क्योंकि अनेक व्यक्तिमें अनुगतरूपसे जो वृत्तित्व है वही साधारणत्व है। इस कारणसे सत्त्व आदि रूपसे सबकी एकता है और जीव आदि अनेक द्रव्योंके भेदसे अनेकता भी उपपन्न है। तदिदमाहुः स्वामिसमन्तभद्राचार्याःयही विषय स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा भी है; “सत्सामान्यात्तु सर्वैक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदतः । भेदाभेदविवक्षायामसाधारणहेतुवत् ॥” इति । "भेदाभेदकी विवक्षामें असाधारण हेतुके तुल्य तत्सामान्यसे सबकी एकता है, और द्रव्य आदिके भेदसे पृथक्ता भी है।" .. यथा-हेतुः पक्षधर्मत्वादिभेदविवक्षायामनेकः, हेतुत्वेनैकश्च । तथा सर्व सत्त्वादिभिरेकं जीवद्रव्यादिभेदेनानेकमिति तदर्थः । प्रपंचितश्चायमर्थो देवागमालंकार इति नेहोच्यते । १ गोलाकार For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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