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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मात्मकवस्तुनिष्ठैकधर्मगोचरो धर्मान्तराप्रतिषेधकः । मिथ्यैकान्तस्त्वेकधर्ममात्रावधारणेनान्याशेषधर्मनिराकरणप्रवणः । एवमेकत्रवस्तुन्यस्तित्वनास्तित्वादिनानाधर्मनिरूपणप्रवणः प्रत्यक्षानुमानागमाविरुद्धस्सम्यगनेकान्तः । प्रत्यक्षादिविरुद्धानेकधर्मपरिकल्पनं मिथ्यानेकान्तः । इति । तत्र सम्यगेकान्तो नयः, मिथ्यैकान्तो नयाभासः । सम्यगनेकान्तः प्रमाणं; मिथ्यानेकान्तः प्रमाणाभासः । इति व्यपदिश्यते। .. प्रश्नः-अनेकान्त इस शब्द तथा इसके अर्थमें भी विधि तथा निषेधरूप "स्यादस्ति स्यान्नास्ति' इत्यादि सप्तभंगी प्रवृत्त होती है कि नहीं? यदि यह कहो कि प्रवृत्त होती है तब तो अनेकान्तके निषेधकी कल्पनासे एकान्त ही प्राप्त हुआ! क्योंकि जैसे एकान्तका निषेध होनेसे अनेकान्त होता है ऐसे ही अनेकान्त जो नहीं अर्थात् एकान्तरूपता प्राप्त हुई, तब एकान्त पक्षमें जो दोष आपने दिया है वह आपको भी प्राप्त हुआ ! और अनवस्थारूप दोष भी आवेगा, क्योंकि इस प्रकार एकान्तकी अन्य अनेकान्तकी कल्पना करनेसे विधि तथा निषेध बराबर कहते हुये चले जाओ, जितने अनेकान्त कहोगे वहां सब जगह विधि प्रतिषेधकी कल्पनासे कहीं विश्राम न मिलेगा, यह अनवस्था दोष तथा एकान्त पक्षके दोष भी तुमारे पक्षमें प्राप्त हुये! और यदि यह कहो कि अनेकान्तमें विधिनिषेध आदिरूप सप्तभंगी नहीं प्रवृत्त होती तो सम्पूर्ण वस्तुमात्र सप्तभंगी न्यायसे व्याप्त है, इस सिद्धान्तका व्याघात हुआ ? ऐसी शङ्का नहीं कर सकते क्योंकि प्रमाण तथा नयके भेदकी योजनासे अनेकान्तमें भी विधि निषेध कल्पनासे सप्तभङ्गी न्यायकी उपपत्ति है । जैसे यह सिद्ध होता है वह दर्शाते हैं;-एकान्त दो प्रकारका है, एक सम्यक् एकान्त और दूसरा मिथ्या एकान्त । ऐसे ही अनेकान्त भी दो प्रकारका है एक सम्यक् अनेकान्त और दूसरा मिथ्या अनेकान्त । उनमेंसे सम्यक् एकान्त वह है जो प्रमाण सिद्ध अनेक धर्मस्वरूप जो वस्तु है उस वस्तुमें जो रहनेवाला धर्म है, उस धर्मको अन्य धर्मोका निषेध न करके विषय करनेवाला, अर्थात् अनेक धर्ममय पदार्थके एक किसी धर्मको कहे परन्तु अन्य धर्मोंका निषेध भी जो नहीं करता है वही सम्यक् एकान्त है! और पदार्थके एक ही धर्मका निश्चय करके अन्य संपूर्ण धर्मोंके निषेध करनेमें जो तत्पर है वह मिथ्या एकान्त है। इसी प्रकारके प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम प्रमाणसे अविरुद्ध एक वस्तुमें अनेक धर्मोके निरूपण करनेमें तत्पर है वह सम्यक् अनेकान्त है । तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणसे विरुद्ध जो एक वस्तुमें अनेक धर्मोकी कल्पना करता है वह मिथ्या अनेकान्त है । उनमें सम्यक् एकान्त तो नय है और मिथ्या एकान्त नयाभास है । और ऐसे ही सम्यक् अनेकान्त प्रमाण और मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है ऐसा भी कहते हैं। १ युक्तिपूर्वक सिद्धि, प्रमाण तथा नय इन दोनोंके भेदसे अनेकान्तमें विधिनिषेधकी कल्पनारूप सप्तभजी न्यायकी योजना युक्तिसे सिद्ध है. २ सप्तभङ्गी न्यायकी अनेकान्तमें भी सिद्धि. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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