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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७ यदि ऐसी शंका करो तो यथार्थ है, परन्तु एक पद प्रधानतासे एक ही कालमें अनेक धर्मसे अवच्छिन्न पदार्थका बोधक नहीं होता, ऐसा नियम हमने कहा है, तो इस प्रकृत प्रसंगमें देखिये कि प्रथम वृक्ष शब्द एक वृक्षत्वरूप जातिसे वा वृक्षत्वरूप एक धर्मसे अवच्छिन्न वृक्षरूप द्रव्यका ज्ञान कराता है, पश्चात् लिंग और संख्याका इस प्रकार शाब्द बोध अर्थात् शब्द जन्य ज्ञान क्रमसे ही होता है, वृक्षत्व धर्म युक्त वृक्ष पुंलिंग तथा बहुत संख्या युक्त है ऐसा अर्थ " वृक्षाः" इस पदसे होता है। तदुक्तम्यह विषय अन्यत्र भी कहा है " स्वार्थमभिधाय शब्दो निरपेक्षो द्रव्यमाह समवेतम् । समवेतस्य तु वचने लिंग संख्यां विभक्तियुक्तस्सन् ।" इति । __ शब्द प्रथम जाति वा धर्मरूप अर्थको अर्थात् वृक्ष शब्द वृक्षत्व जीव शब्द जीवत्व घट शब्द घटत्वरूप अर्थको कहके, लिंग संख्या आदिसे निरपेक्ष होके उस जीवत्व वृक्षत्व तथा घटत्व धर्मसे युक्त द्रव्यरूप अर्थको कहता है, और पुनः उन २ वृक्षत्व आदि धर्मोंसे समवेत अर्थात् सहित पदार्थका कहना . होता है तब विभक्तिसे युक्त होके पुंलिंग आदि लिंग तथा एकत्व द्वित्व तथा बहुत्वरूप संख्यारूप अर्थको कहता है। एवं च प्रधानभावेन वृक्षत्वावच्छिन्नस्य प्रतीतिर्गुणभावेन बहुत्वसंख्याया. इति न कश्चिद्दोषः। इस प्रकारका सिद्धान्त होनेसे 'वृक्षाः' इत्यादि पदसे वृक्षत्व धर्मसे अवच्छिन्न पदार्थका बोध तो प्रधानतासे होता है और लिंग तथा बहुत्व संख्याका गौणतासे, इसलिये एक पद एक कालमें प्रधानतासे एक ही धर्माऽवच्छिन्न पदार्थका ज्ञान सर्वत्र कराता है, इसलिये सिद्धान्त वा नियममें कोई दोष नहीं है'। अथैकस्य पदस्य वाक्यस्य वा प्रधानभावेनानेकधर्मावच्छिन्नवस्तुबोधकत्वानंगीकारे प्रधानभावेनाशेषधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रकाशकं प्रमाणवाक्यं कथमुपपद्यते? इति चेत्-कालादिभिरभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा द्रव्यपर्यायनयार्पितेन सकलस्य वस्तुनः कथनात् । इति निरूपितं प्राक् । यदि एक पद अथवा एक वाक्यसे प्रधानतासे अनेक धर्मसे अवच्छिन्न वस्तुकी बोधकता इस पक्षको नहीं स्वीकार करते हो, अर्थात् एक पद वाक्य एक ही धर्मसे अवच्छिन्न वस्तुका बोध कराता है, यही नियम है तब प्रमाण वाक्य अशेष सम्पूर्ण अथवा अनेक धर्मखरूप वस्तुका प्रकाशक कैसे हो सकता है । यदि ऐसा कहो तोकाल, आत्मस्वरूप तथा अर्थ आदिके द्वारा द्रव्यार्थ नयकी अपेक्षासे अभेद वृत्तिसे, और पर्यायार्थक नयकी अपेक्षासे प्रमाण वाक्यसे सम्पूर्ण वस्तुका कथन होता है यह विषय पूर्व प्रसंगमें पूर्ण रीतिसे निरूपित कर चुके हैं For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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