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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा मेष आदि शरीरके साथ जब संबन्ध था तब शृंग तथा रोमकी अस्तिता और शश मनुष्य तथा कूर्म आदि शरीरके साथ संबन्ध होनेसे शृंग तथा रोमका अभाव होनेसे नास्तिता भी सिद्ध है । इस प्रकार नास्तित्व अस्तित्व व्याप्त है । यह अनुमान योग्य ही है । और आकाशके पुष्पमें तो अस्तित्व नास्तित्व इस प्रकारसे हैं, जैसे वनस्पति नाम कर्मके उदयसे प्राप्त जो विशेष वृक्षरूपता है, उस वृक्षका पुष्प ऐसा कथन होता है, क्योंकि पुष्परूपमें परिणत जो पुद्गल द्रव्य है वह कथंचित् उस वृक्षसे भिन्न है, इसलिये वृक्ष तथा पुष्पकी भेदविवक्षा मानकर तथा पुष्पसे वृक्ष व्याप्त होनेसे वृक्षका पुष्प यह व्यव हार होता है, ऐसे ही आकाशके साथ भी वृक्षवत् पुष्प व्याप्त है क्योंकि जब वृक्ष आदि सब कुछ आकाशमें हैं तो क्यों पुष्पकी व्याप्ति आकाशमें नहीं है, किन्तु पुष्पका संबन्ध आकाशके साथ अवश्य है इसलिये आकाशका पुष्प यह कथन युक्तिसे युक्त ही है, अब कदाचित् ऐसा कहो कि मल्लिका वृक्षका तो उपकार पुष्पमें निज शाखा आदिमें धारण आदिसे है इसलिये मल्लिका वा मालतीका पुष्प ऐसा कंथन होता है और आकाशका उपकार पुष्पके ऊपर कुछ नही है इसलिये आकाशका पुष्प ऐसा कथन योग्य नहीं है ? । ऐसी शंका नहीं करसकते, क्योंकि आकाशमें भी पुष्प तथा वृक्ष है इसलिये आकाशका पुष्प ऐसा व्यवहार होता है क्योंकि जैसे वृक्ष अपने शाखा आदि देशमें रहनेको स्थान देता है ऐसे ही आकाश भी देता है । वही आकाशका उपकार है उस उपकारसे आकाशका पुष्प यह कथन किसी प्रकारसे नहीं रुक सकता । किन्तु इसके विषयमें यह विशेषता है कि वृक्षसे तो पुष्प गिरके उससे पृथक् भी हो सकता है, परन्तु आकाशसे गिरकर कहां जायगा जहां वह पुष्प गिरेगा वहां ही आकाश विद्यमान है इस कारण आकाशके साथ पुष्पका नित्य संबन्ध है इसलिये आकाशका पुष्प यह कथन योग्य ही है। - यदि च-मल्लिकालताजन्यत्वान्मल्लिकाकुसुममित्युच्यते, तदाऽऽकाशस्यापि सर्वकार्येध्ववकाशप्रदत्वेन कारणत्वादाकाशकुसुममिति व्यवहारो दुर्वारः ॥ अथाकाशापेक्षया पुष्पस्य भिन्नत्वान्नाकाशकुसुममिति व्यवहार इति चेत्-भिन्नत्वं किं कथंचित् ? सर्वथा वा ? आये मल्लिकाकुसुममित्यपि व्यवहारो माभूत्, मल्लिकापेक्षया कथञ्चिद्भिन्नत्वात्पुष्पस्य । अन्त्येत्वाकाशापेक्षया पुष्पस्य सर्वथाभिन्नत्वमसिद्धम् । द्रव्यत्वादिना कथंचिदभेदस्यापि सद्भावात् । तस्मान्मल्लिकाकुसुममाकाशकुसुममित्यनयोर्न कोपि विशेष इति सिद्धान्तस्यास्तिनास्त्यात्मकत्वम् ।। इत्याहुः ॥ और यदि ऐसा कहो कि मल्लिकाकी लतासे उत्पन्न होनेसे मल्लिकापुष्प ऐसा कहा जाता है, क्योंकि मल्लिका लता मूल भागसे जल आदि आहारका आकर्षण करके वृद्धिको प्राप्त होके अपनी शाखादिसे पुष्पको भी आहार आदि संप्रदानरूप उपकार करके उसको १ भेड़ जिसके शरीरके रोमके कम्बल दुशाले आदि बनते हैं. २ एक प्रकारका संबन्ध रहना अथवा स्थिति. ३ एक प्रकारका वृक्ष. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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