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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वरूपका भान होना ही स्वकीय रूप द्रव्य आदि चतुष्टय, तथा परकीय रूप द्रव्य आदि चतुष्टय सहित सत्व तथा असत्व आदिको विषय करता है । इस बातके ही निरूपण करनेको हमारे प्रयत्नका आरम्भ है । और यदि प्रमाणोंसे वस्तुके स्वरूपका भासना सिद्ध न कियाजाय तो प्रमाणरूप अंकुशके बिना वादियोंकी अनेक प्रकारकी जो विप्रतिपत्ति अर्थात् विरुद्ध युक्ति हैं उनका निवारण करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं क्योंकी वस्तुके स्वरूपकी व्यवस्था उसी प्रकारसे करनी चाहिये कि जिसमें उसका भान बिना किसी प्रमाणके बाधसे निर्विवाद हो प्रमाणके आधीन प्रमेय पदार्थोंकी सिद्धि होती है ऐसा अन्य ग्रन्थमें आचार्यका वचन है । सो इस रीतिसे अब विचारना है कि स्व तथा पररूप द्रव्य आदि चतुष्टयके अन्य स्वरूप द्रव्यादि चतुष्टयकी प्रतीति होती है वा नहीं १ यदि अन्त्यपक्ष है अर्थात् नहीं हो, तो स्वरूप आदिके अन्य स्वरूप आदिका तो स्वीकार ही नहीं है प्रतीति कैसे होती है। ऐसा माननेपर भी उनके अस्तित्व तथा नास्तित्व आदिकी व्यवस्थाका वर्णन आगे चलके करेंगे । और यदि प्रथम पक्ष है। अर्थात् स्वरूप आदि चतुष्टयके भी अन्य स्वरूप आदिका भान होता है तो बोधके अनुसार स्वरूप आदि चतुष्टयके भी अन्य स्वरूप आदि चतुष्टयका अङ्गीकार करते हैं । अब कदाचित् कहो कि स्वरूप आदि चतुष्टयके अन्य स्वरूप आदि चतुष्टय जैसे स्वीकार किया है ऐसे ही इस अन्य स्वरूप आदिके भी और अन्य स्वरूप आदि चतुष्टय होंगे। तथा उनके भी अन्य स्वरूप आदि चतुष्टय होंगे, तो इस प्रकार अनवस्था दोष आवेगा १ जहांपर अन्य स्वरूप आदि चतुष्टयका भान होता है वहां ही पर व्यवस्थाकी उपपत्ति भी हो जायगी। अब जीवके स्वरूपके विषयमें स्वरूप द्रव्यादिका विचार करते हैं-उसमें प्रथम "उपयोगसामान्य" यह जीवका स्वरूप है, क्योंकि उपयोगसामान्यरूप ही जीवका लक्षण है "उपयोगो लक्षणम्" उपयोग ही जीवका लक्षण है। ऐसा महाशास्त्रका वचन है । और उस उपयोगसे अन्य जो अनुपयोग है वही जीवका पररूप है । इन दोनोंमेसे उपयोगसे तो जीवका सत्व, और अनुपयोगसे असत्वका भान होता है, और उपयोग सामान्यका स्वरूप, ज्ञान दर्शन इन दोनोमेंसे अन्यतर अर्थात् ज्ञान दर्शनमेंसे कोई भी एक है, और ज्ञान दर्शनसे भिन्न उपयोगका पररूप है। और इनमेंसे भी उपयोग विशेष जो ज्ञान है उस ज्ञानका स्वरूप अपनेसे प्रकाशनीय जो पदार्थ, उस पदार्थका निश्चय है । और इन्द्रिय तथा १ अपना रूप, द्रव्य, क्षेत्र, काल. २ अन्यके रूप द्रव्य क्षेत्र काल. ३ ज्ञानमें प्रकट करना, वस्तुके खरूपका भास नहीं हमको यह बोध कराता है कि वस्तु अपने रूप द्रव्यादि चारोंकी अपेक्षासे है, अन्यके रूप द्रव्यादि चारोंकी अपेक्षासे नहीं है. ४ सत्व वा असल आदि एकान्तरूपसे वादियोंके अनेक प्रकारके विरुद्ध कथन. ५वस्तुके स्वरूपका.६ प्रमाणका विरोध वस्तुके खरूपका निर्णय ऐसे करना चाहिये जो किसी प्रमाणसे कट न सके, जैसे किसीने कहा कि पदार्थ होनेसे अग्नि शीतल है, परन्तु जब हाथ रखके देखोगे तो वह उष्ण भासेगा इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाणके होनेसे यह निर्णय ठीक नहीं है. ७ वस्तुके स्वरूपका ज्ञान अर्थात् जहांपर वस्तुके स्वरूप आदिके अन्य खरूप आदि चतुष्टयका ज्ञान होता है वहांपर वह माना गया है. ८ स्वरूप आदि चतुष्टयके ज्ञानकी तरह. ९ जो वस्तु ज्ञानके द्वारा प्रकाश होती है. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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