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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टभेदश्च संसर्ग इत्युच्यते । य एवास्तीति शाब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकस्स एवाशेषानन्तधर्मात्मकस्यापि वस्तुनो वाचक इत्येकशब्दवाच्यत्वं शब्देनाभेदवृत्तिः । एवं कालादिभिरष्टविधाऽभेदवृत्तिः पर्यायार्थिकनयस्य गुणभावे द्रव्यार्थिकनयप्राधान्यादुपपद्यते। - काल आदि कौन हैं ? यदि ऐसा प्रश्न किया जाय तो इसका उत्तर कहते हैं-काल १ आत्मरूप अर्थात् जिस स्वरूपसे वस्तुमें धर्म रहे वह स्वरूप २ अर्थ (घट आदि पदार्थ) ३ सम्बन्ध ( अभेदकी प्रधानता जनानेवाला सम्बन्ध ) ४ उपकार ५ गुणिदेश ( पदार्थके जिस देशमें धर्म रहे वह देश) ६ संसर्ग (प्रधानतासे भेदको जनानेवाला सम्बन्ध) ७ शब्द (वस्तुका वाचक शब्द) ८ इन आठ प्रकारसे धर्मोंकी अभेदरूपसे स्थिति रहती है ॥ उनमेंसे 'स्यादस्ति एव घट:' किसी अपेक्षासे घट है. यहांपर जिस कालमें घट आदि पदार्थमें अस्तित्व धर्म है, उसी कालमें घटमें रहनेवाले नास्तित्व तथा अवक्तव्यत्व आदि सम्पूर्ण धर्म भी रहते हैं. इस रीतिसे उन सब अस्तित्व आदि धर्मोंकी एक घटरूप अधिकरणमें स्थिति कालद्वारा अभेदसे है । अर्थात् कालिक सम्बन्धसे सब धर्म अभिन्न हैं क्योंकि समान कालमें ही सब धर्म विद्यमान हैं १ तथा जिस प्रकार अस्तित्वका खरूप घटका गुणत्व है ऐसे ही वही गुणत्वरूप अन्य अन्य अनन्त धर्मोंका भी स्वरूप है. इस प्रकार एक घटरूप अधिकरणमें आत्मस्वरूपसे सब धर्म रहते हैं. यह आत्मस्वरूपसे सब धर्मोकी अभेदसे वृत्ति हुई. २ जो घटरूप द्रव्य पदार्थ अस्तित्व धर्मका आधार है वही घट द्रव्य अन्य धर्मोंका भी आधार है. इस प्रकार एक आधारमें वृत्तिता अर्थसे अभेदवृत्ति है. ३ जो सर्वथा वा एकान्तरूपसे नहीं. किन्तु कथंचित् अभेदरूप अस्तित्वका सम्बन्ध घटके साथ है वही कथंचित् सम्बन्धरूपता अन्य सब धर्मोंकी भी घटके साथ है. यह एक सम्बन्ध प्रतियोगितारूप सम्बन्धसे अभेदवृत्ति सब धर्मोंकी है । ४ तथा जो स्वानुरक्तत्वकरण अर्थात् अपने स्वरूपसहित होता तन्मयताका सम्पादन करनारूप उपकार अस्तित्वका घटके साथ है. वही अपना वैशिष्टयसम्पादन एक कार्यजनकतारूप उपकार अन्य धर्मोंका भी है और स्वानुरक्तत्वकरण अपने स्वरूपका वस्तुमें साहित्य सम्पादन करना है । जैसे नील रक्त आदि गुणोंका वस्तुमें नीलत्व रक्तत्व आदि धर्मसे अपने स्वरूपका उपराग करते हैं, वह उनका उपराग जिस वस्तुको नीलत्व तथा रक्तत्व आदि गुणोंसे युक्त करता है वह भी धर्म प्रकारक तथा वस्तुरूप जो धर्मी तद्विशेष्यक ज्ञानजनकतासे तात्पर्य रखता है, अर्थात् अस्तित्व आदि धर्म जिसमें विशेषण हों और जिसमें धर्म रहे वह वस्तु जिसमें विशेष्य हो ऐसा १ घटका गुण होना जैसे अस्तित्व अपने गुणपनेसे है ऐसे ही अन्य धर्म भी हैं. २ निजस्वरूप जिस तुमें रहते हैं वही उनका निजका आत्मरूप है. ३ स्थिति वा रहना. ४ एक ही पदार्थमें सब धर्मोकी स्थिति. ५ एक सम्बन्ध प्रतियोगी अर्थात् विशेषण होके रहना. ६ अपने खरूपसहित अथवा अपने खरूपमय वस्तुको करना । For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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