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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मोसे पृथक् धर्म ॥ इस प्रकार प्रथम तृतीय धर्मोकी योजनासे अन्य धर्मकी सिद्धिके खण्डनसे क्रम तथा अक्रमसे अर्पित द्वितीय तृतीय धर्मोंकी योजनासे अन्य धर्मसिद्धिका भी खण्डन हो गया । यथा एक पदार्थ विषयक दो सत्त्वके सदृश एक रूपावच्छिन्न एक पदार्थ विषयक दो नास्तित्वका असंभव है । जैसे एकधर्मिक काष्ठमय घटके सत्त्वका अभाव होनेपर उससे भिन्न मृत्तिकादिमय घटकी सत्ताका भी संभव है | नन्वेवं-प्रथमचतुर्थयोर्द्वितीयचतुर्थयोस्तृतीयचतुर्थयोश्च सहितयोः कथं धर्मान्तरत्वम् अवक्तव्यत्वं हि सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयम्, तथा च यथा क्रमार्पितास्तित्वोभयस्मिन्नस्तित्वस्य योजनं न सम्भवति, अस्तित्वद्वयाभावात्; तथा सहार्पितोभयस्मिन्नपीतिचेन्न । यतोऽवक्तव्यत्वं सहार्पितोभयमेव न किन्तु, सहार्पितयोरस्तित्वनास्तित्वयोस्सर्वथा वक्तुमशक्यत्वरूपं धर्मान्तरमेव; तथा च सत्त्वेनसहितमवक्तव्यत्वादिकं धर्मान्तरं प्रतीतिसिद्धमेव । शङ्का, - प्रथम चतुर्थ, द्वितीये चतुर्थ तथा तृतीय चतुर्थ धर्मोकी साथ योजनासे धर्मान्तरकी सिद्धि कैसे होती है ? क्योंकि प्रथम धर्मोकी योजनासे स्यादस्ति अवक्तव्यश्च इस पञ्चमभङ्गकी सिद्धि होती है । यहांपर अवक्तव्यत्व संह अर्पित 'स्यादस्ति' और 'स्याम्नास्ति' एतत् उभयरूप होगा तो इस प्रकारसे जैसे क्रमसे अर्पित अस्तित्वद्वयमें दूसरे अस्तित्वका कुछ प्रयोजन नहीं है । क्योंकि एक पदार्थ विषयक दो संत्त्वका असंभव है । ऐसे ही साथ अर्पित 'अस्तित्वनास्तित्व' इस उभयरूपमें नास्तित्व भी नहीं रह सकता क्योंकि जहां एक धर्मविषयक नास्तित्व है वहां अन्य अस्तित्वका भी संभव है. ऐसी शङ्का नहीं कर सकते हो । क्योंकि अवक्तव्यत्वके साथ योजित 'अस्ति नास्तित्व' उभयरूपही नहीं है । किन्तु सह अर्पित अस्तित्व नास्तित्व इन दोनों धर्मोका सर्वथा कथन करनेको अशक्यत्वरूप धर्मान्तर है. क्योंकि एक ही पदार्थके विषय में साथ ही अस्तिता और नास्तिताका कथन नहीं हो सकता । इस प्रकार सत्त्वके साथ अवक्तव्यत्व आदि धर्मान्तर अनुभवसिद्ध ही हैं । प्रथमे भङ्गे सत्त्वस्य प्रधानभावेन प्रतीतिः, द्वितीये पुनरसत्त्वस्य तृतीये क्रमार्पितयो - स्सत्त्वासत्त्वयोः, चतुर्थेत्ववक्तव्यत्वस्य पञ्चमे सत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य, षष्ठे चासत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य, सप्तमे क्रमार्पितसत्त्वासत्त्वशिष्टावक्तव्यत्वस्येति विवेकः । प्रथमभङ्गादावसत्त्वादीनां गुणभावमात्रं, न तु प्रतिषेधः । अब प्रथम भङ्गमें अर्थात् 'स्यादस्त्येव घटः सत्त्वकी प्रधानतासे प्रतीति होती है. तथा द्वितीय 'स्यान्नास्त्येव घटः ' भङ्गमें असत्त्व अर्थात् असत्ताकी प्रतीति प्रधा १ स्यान्नास्त्येव घटः स्यादस्ति नास्ति च घटः २ स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्य एव ३ स्यान्नास्त्येव स्यादवकव्य एव. ४ स्यादस्तिनास्ति च स्यादवक्तव्य एव. ५ कथंचित् है और अवक्तव्य है. ६ साथ. ७ योजित. ८ दो सत्व. ९ पूर्वोक्त रीति के अनुसार १० योजित. ११ साथ योजित सत्ता तथा असत्ता. १२ सत्ता. १३ उभयरूपसे भिन्न धर्म. १४ कथंचित् घट है. १५ सत्ता. १६ अनुभव. १७ कथंचित् घट नहीं है. २ For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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