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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra | मुद्रालक्षण, भौतिक, मनोदय आदि विविध शरीर, षोडश महाविद्या ध्यानयोग, कर्मयोग चौथे पटल में मन्त्रग्राम आदि का साधन प्रकार, आकर्षण, वशीकरण आदि में ऋतु आदि का नियम, सब कर्मों में होम की आवश्यकता, होमद्रव्यों का निरूपण, वशीकरण आदि में पुष्प विशेषों का नियम तथा गुरुतोषणविधि । www.kobatirth.org - 9 कुलार्णवतन्त्रम् 1) श्लोक- 2000 17 उल्लासों में विभक्त विषय जीवस्थिति कुलमाहात्म्य ऊर्ध्वाप्राय-माहात्य, । मन्त्रोद्धार सोलह प्रकार के न्यास, कुलद्रव्यों के निर्माण की विधि, कुल द्रव्य आदि के संस्कार, बटुक आदि की पूजाविधि, तीन तत्त्वों के उल्लास तथा पान के भेद, कुल यागादि का वर्णन, विशेष दिन की पूजा, कुलाचारविधि, श्री पादुकाभक्तिलक्षण, गुरु-शिष्य लक्षण, गुरु-शिष्यादि परीक्षा, पुरश्चरणविधि, काम्यकर्म विधि, गुरुनाम वासना आदि कथन I 2) श्लोक 2300 17 उल्लास। शिव-पार्वती संवादरूप | इसमें कहा गया है की उड्डीयान महापीठ में स्त्री के बिना सिद्धि नहीं होतीं । स्त्रीविहीन साधना में देवता विघ्न डालते हैं ब्राह्मणी और यवनी के सिवा सजातीया सर्वदा ग्राह्य हैं। विदग्धा रजकी और नापिती पाहा है। हिंगुला पीठ में जो साधक मत्स्य सेवन करता है उसे सिद्धि नहीं होती। मुद्राख्य पीठों में निवास कर रहा साधक मद्य पीकर यदि जप करे तो उसे भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। जालन्दर महापीठ में मद्य का त्याग कर देना चाहिए। वाराणसी में केवल मुद्रा से शिवभक्ति परायण साधक को सिद्धि प्राप्त होती है । अन्तर्वेदी, प्रयाग, मिथिला, मगध और मेखला में मद्य से सिद्धि होती है। वहां मद्य के बिना देवता विघ्न उपस्थित करते हैं। अंग वंग और कलिंग में स्त्री से सिद्धि होती है। सिंहल में स्त्री राज्य में तथा राढा में मत्स्य, मांस, मुद्रा और अंगना से सिद्धि होती है। गौड देश में पांचो द्रव्यों से सिद्धि होती है । उसी प्रकार अन्य देशों में भी पांच द्रव्यों से सिद्धि होती है। तन्त्रान्तर में कहा गया है कि दही के बराबर गुड और बेर की जड़ मिला कर तीन दिन रखा जाये तो वह मद्य हो जाता है। शक्ति ही “कुल" कहीं गयी है, उसमें जो पूजा आदि है वही "कुलाचार है। कुरुक्षेत्रम् ले. पांडुरंगशास्त्री डेम्बेकर, ठाणे, (महाराष्ट्र) निवासी। 15 सर्गों का महाकाव्य । कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय से प्रकाशित । 1 1 कुवलय-विलासम् ले. रयस अहोबल मन्त्री ई. 16 वीं शती। पांच अंक विषय नायक कुवलयाश्व तथा नायिका मदालसा की प्रणयकथा । विजयनगर के राजा श्रीरङ्गराज (1571-1585 ई.) के इच्छानुसार इसकी रचना हुई । कुवलयानन्द ले. अप्पय्य दीक्षित। इसमें 123 अर्थालंकारों का विस्तृत विवेचन किया गया है इसकी रचना जयदेवकृत 78 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - "चंद्रालोक" के आधार पर की गई है। दीक्षितजी ने इसमे "चंद्रालोक" की ही शैली अपनायी है, जिसमें एक ही श्लोक में अलंकार की परिभाषा व उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं। "चंद्रालोक" के अलंकारों के लक्षण "कुवलयानंद" में ज्यों के त्यों ले लिये गए हैं और दीक्षितजी ने उनके स्पष्टीकरण के लिये अपनी ओर से विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। दीक्षितजी ने अनेक अलंकारों के नवीन भेदों की कल्पना की है और लगभग 17 नवीन अलंकारों का भी वर्णन किया है। वे -प्रस्तुतांकुर, अल्प, करदीपक, मिथ्याध्यवसिति ललित, अनुशा, मुद्रा, रत्नावली, विशेषक, गृहोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, निरुक्ति प्रतिषेध व विधि । यद्यपि इन अलंकारों के वर्णन भोज एवं शोभाकरण मित्र के ग्रंथों में भी प्राप्त होते हैं, पर इन्हें व्यवस्थित रूप प्रदान करने का श्रेय दीक्षितजी को ही प्राप्त है। " कुवलयानंद पर टीकाएं कुवलयानंद अलंकार विषयक ग्रंथों में अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है और प्रारंभ से ही इसे यह गुण प्राप्त है। इस ग्रंथ पर 10 टीकाओं की रचना हो चुकी है 1) रसिकरंजिनी टीका इसके रचयिता गंगाधर वाजपेयी (गंगाध्वराध्वरी) हैं जो तंजौर नरेश राजा शहाजी भोसले के आश्रित थे। सन 1754-1711। इस टीका का प्रकाशन सन 1892 ई. में कुंभकोणम् से हो चुका है और इस पर हालास्यनाथ की टिपणी भी है। 2) अलंकारचंद्रिका- लेखकआशाधर भट्ट हैं। यह टीका "कुवलयानंद" के केवल कारिकाभाग पर है (4-5) अलंकारसुधा एवं विषमपद- व्याख्यानषट्पदानंद इन दोनों ही टीकाओं के प्रणेता सुप्रसिद्ध वैयाकरण नागोजी भट्ट है। इनमें प्रथम पुस्तक टीका है और दीक्षितकृत कुवलयानंद के कठिन पदों पर व्याख्यान के रूप में रचित है। काव्यमंजरी रचयिता व्यायवागीश भट्टाचार्य 7) कुवलयानंद टीका टीकाकार मथुरानाथ 8) कुवलयानंद टिप्पण प्रणेता करवीराम 9) लध्वलंकारचंद्रिका रचयिता देवीदत्त और 10) बुधरंजिनी इसके टीकाकार बेंगलसूरि हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - For Private and Personal Use Only कुवलयानंद का हिन्दी भाष्य डॉ. भोलाशंकर व्यास ने किया है जो चौवा विद्याभवन से प्रकाशित है। कुवलयावली (अपरनाम - रत्नपांचालिका) ले. कृष्णकविशेखर यह चार अंकों की नाटिका रचकोण्डा के देवता प्रसन्न गोभल के वसंतोत्सव के अवसर पर मंच पर प्रस्तुत करने के विशिष्ट उद्देश्य से ही लिखी गई है। श्रीकृष्ण के साथ कुवलयावली का विवाह ही इसकी कथा का विषय है ब्रह्मा पृथ्वीदेवी को कुवलयावली नामक मानवी कन्या का रूप धारण करने के लिए विवश करते हैं। नारद उसके पालक पिता बनते हैं और रुक्मिणी के पास उसे यह कह कर छोड जाते हैं कि वे उसके लिए उपयुक्त वर की खोज में जा रहे है। उस समय वे कुवलयावली को उपहारस्वरूप
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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