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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डांगुर कुमारपूजा, जयकुमारपूजा, स्नानविधि। पुत्रोत्पत्ति में रक्तमातृका, षष्ठीदेवी, डांगुरकुमार और जयकुमार ये चार बाधक होते हैं । अतः सन्तति के आकांक्षियों को इनकी तृप्ति करनी चाहिये। कुब्जिकापूजन - श्लोक 700। विषय- भूतशुद्धि, कलशपात्र-पूजन, गन्धिषडंग, मालिनी, अघोर षडंगदूती, अघोरास्त्र, एकाक्षरी षडंगविद्या, घोरिकाष्टक, रुद्रखण्ड, मातृखण्ड, विजयपंचक, आदिसप्तक, गुरुपंक्तिपूजा, ब्रह्माण्यादि पूजन, भगवती पूजन, वागीश्वरीपूजन, क्रमपूजन, कर्मध्यान, विमलपंचक, अष्टाविंशति कर्म इत्यादि। कुब्जिकापूजापद्धति- श्लोक- 2500। इसमें शिव शक्ति के बहुत से स्तोत्र और कूटाक्षार मंत्र प्रतिपादित हैं जिनमें व्यंजन -राशि के बीच एक ही स्वरवर्ण रहता है। इसमें 64 योगिनीयों के निम्नलिखित नाम यथाक्रम दिये गये हैं - श्रीजया, विजया, जयन्ती,अपराजिता, नन्दा, भद्रा, भीमा, दिव्ययोगिनी, महासिद्धयोगिनी, गणेश्वरी, शाकिनी, कालरात्रि, ऊर्ध्वकेशी, निशाकरी, गम्भीरा, भूषणी, स्थूलांगी, पावकी, कल्लोला, विमला, महानन्दा, ज्वालामुखी, विद्या, पक्षिणी, विषभक्षणी, महासिद्धिप्रदा, तुष्टिदा, इच्छासिद्धिदा, कुवर्णिका, भासुरा, मीनाक्षी, दीर्घाङ्गी, कलहप्रिया, त्रिपुरान्तकी, राक्षसी, धीरा, रक्ताक्षी, विश्वरूपा, भयंकरी, फेत्कारी, रौद्री, वेताली, शुष्कांगा, नरभोजिनी, वीरभद्रा, महाकाली, कराली, विकृतानना, कोटराक्षी, भीमा, भीमभद्रा, सुभद्रा, वायुवेगा, हयानना, ब्रह्माणी, वैष्णवी, रौद्री, मातङ्गी, चर्चिकेश्वरी, ईश्वरी, वाराही, सुबडी तथा अम्बा। योगिनीतंत्र की नामवली इससे भिन्न है। कुब्जिकामत - श्लोक- 2964। कहा जाता है कि एक तन्त्र-सम्प्रदाय था जो कुब्जिकामत कुललिकाम्नाय, श्रीमत, कादिमत, विद्यापीठ आदि विाविध नामों से अभिहित होता था उसी के श्रीमतोत्तर मन्थानभैरव, कुलब्जिकामतोत्तर आदि परिशिष्ट हैं। कहते हैं कि मूल ग्रंथ कुलालिकाम्राय 24000 श्लोकों का ग्रंथ है जो चार विभागों में विभक्त है, जिन्हें षट्क कहा जाता है। प्रत्येक षट्क में छह हजार श्लोक हैं। यह कुब्जिकामत कुलालिकाम्नाय के अन्तर्गत है। इसके कुल 25 पटलों के विषय हैं- चंद्रद्वीपावतार, कौमारी-अधिकार, मन्थानभेद प्रचार, रतिसंगम, गबरमालिनी उद्धार में मन्त्रनिर्णय, बृहत्समयोद्धार, जपमुद्रानिर्णय। मन्त्रोद्धार में षडंग विद्याधिकार, स्वच्छन्दशिखाधिकार, दक्षिणषट्क-परिज्ञान, देवीदूतीनिर्णय, योगिनीनिर्णय, महानन्दमंचक, पदद्वयंहंस-निर्णय, चतुष्क-पदभेद, चतुष्कनिर्णय, दीपाम्नाय, समस्त-व्यस्तव्यापिनिर्णय, त्रिकाल-उत्क्रान्ति सम्बन्ध, ग्रहपूजाविधि, पवित्रारोहण आदि। कुब्जिकामतोत्तरम् - (एक ही नाम के तीन भिन्न ग्रंथ हैं)। 1) यह कुलावलिकाम्नाय के अन्तर्गत है। इसमें 23 पटल हैं। विषय- त्रिकालसंक्रान्तिसंबंध, आनन्दचक्रद्वीपावतार, समस्तव्यस्तव्याप्ति आदि। 2) श्लोक- 929। यह शिव-पार्वती संवादरूप है। इसमें स्कन्द की आराधना, उनका परिवार, उनकी साधना, उसका क्रम, मण्डप, धारणामन्त्र, उसके अंगभूत मन्त्र, मन्त्रोद्धारक्रम, मुद्रा, दीक्षा अभिषेक-विधि, प्रतिमा लक्षण आदि विषय वर्णित हैं। 3) (कुमारतन्त्र या बालतन्त्र) ले.-रावण। विषय- बालरोग। इसके 12 अध्याय चक्रपाणिदत्त के चिकित्सासंग्रह में गद्य के रूप में दिये गये हैं। कलकत्तासंस्करण, सन 1872 में प्रकाशित। अन्य आयुर्वेद ग्रंथों में भी इसका प्रायः उल्लेख आता है। कुमारभार्गवीयचम्पू - ले. भानुदत्त। पिता- गणपति। यह ग्रंथ 12 उच्छ्वासों में विभक्त है और इसमें कुमार कार्तिकेय के जन्म से लेकर तारकासुर वध तक की घटनाओं का वर्णन है। यह चम्पू अभी तक अप्रकाशित है, और इसका विवरण इंडिया ऑफिस कैटलाग 4040-408| पृष्ठ 1540 पर प्राप्त होता है। कुमारविजयम् (अपरनाम ब्रह्मानन्द- विजयम्) (नाटक) - 1) ले. घनश्याम। ई. 1700-1750। कवि ने यह नाटक बीस वर्ष की अवस्था में लिखा। विषय- दक्षयज्ञ में आत्मोत्सर्ग करने के पश्चात् दक्षकन्या सती, पार्वती के रूप में जन्म लेती है। वहां से लेकर कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर के वध तक का कथानक। प्रस्तावना में नटी नहीं। सूत्रधार अविवाहित । स्त्री तथा नीच पात्र का संवाद प्राकृत है। एकोक्तियों का विशेष प्रयोग, प्रगल्भ चरित्रचित्रण तथा बीच बीच में छायातत्त्व का अवलंब किया है। उस युग की सामाजिक विषमताओं का अङ्कन तथा विभिन्न सम्प्रदायों में धर्म के नाम पर चलने वाली चारित्रिक भ्रष्टता का चित्रण भी किया है। 2) ले. गीर्वाणेन्द्रयज्वा।। कुमारविजय-चम्पू - ले.- भास्कर। पिता- शिवसूर्य । कुमारसंभवम् - महाकवि कालिदास कृत प्रख्यात महाकाव्य । इसके कुल 17 सर्गों में से प्रथम 8 सर्ग ही कालिदास ने स्वयं रचे हैं। शेष अन्य किसी कवि के हैं। आठवें सर्ग के बाद कालिदास ने यह महाकाव्य अधूरा ही क्यों छोड दियाइस विषय में एक दंतकथा बतायी जाती है कि आठवे सर्ग में कालिदास ने शिव-पार्वती के संभोग का उत्तान वर्णन किया, जिससे उन्हें कुष्ठ रोग हो गया, और वे इस महाकाव्य को पूरा नही कर सके। संभव है कि तत्कालीन पाठकों एवं टीकाकारों ने देवताओं के संभोग-वर्णन के प्रति अपना तीव्र रोष व्यक्त किया, हो जिस कारण कालिदास को वह अधूरा छोडना पडा। कुछ विद्वानों के मतानुसार कुमारसंभव में कालिदास ने कुमार कार्तिकेय के जन्म वर्णन का संकल्प किया था और आठवें सर्ग में शिव-पार्वती के एकांत समागम से वे यही सूचित करना चाहते है। इस दृष्टि से उन्होंने आठवें सर्ग में ही अपनी संकल्पपूर्ति पर महाकाव्य समाप्त किया। अलंकारशास्त्र संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 75 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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