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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनेक ऋचा मिलकर सूक्त बनता है। ऋग्वेद के सूक्तों में मुख्यतः इंद्र, अग्नि, वरुण, मरुत्, आदि देवताओं की स्तुति या वर्णन है। समाज, संस्कार सृष्टिरचना, तत्त्वज्ञान आदि पर भी सूक्त हैं। ___ मंत्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् - मंत्र विभाग तथा ब्राह्मण विभाग मिलकर बने साहित्य को वेद कहते हैं। संहिता मंत्रविभाग है। संहिता की व्यवस्था दो प्रकार से है। अष्टकव्यवस्था - ऋग्वेद के कुल 64 अध्याय हैं। आठ अध्यायों का समूह एक अष्टक है। ऐसे 8 अष्टक हैं। प्रत्येक अध्याय के विभाग को वर्ग कहा गया है। वर्ग की ऋक्संख्या 5 होती हैं परंतु कई वर्ग 9 ऋचाओं तक के हैं। ऋक्संहिता में कुल 2006 वर्ग हैं। 2) मंडल व्यवस्था के अनुसार कुल ऋक्संहिता 10 मंडलों में विभक्त है। प्रत्येक मंडल में अनेक सूक्त और प्रत्येक सूक्त में अनेक ऋचाएं हैं। यह रचना ऐतिहासिक स्वरूप की रहने से अधिक महत्त्व की है। दो से आठ तक मंडल गोत्रऋषि एवं उनके वंशजों पर होने से "गोत्रमंडल' कहलाये गये हैं। गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वसिष्ठ और आठवें के कण्व तथा अंगिरस इस क्रम से आठ गोत्रऋषि हैं। दो से सात मंडल तक तो ऋग्वेद का मूल ही है। इन मंत्रों की रचना, सर्वाधिक प्राचीन है। नौवें मंडल के सारे सूक्तों की रचना सोम नामक एक ही देवताकी स्तुति में है। दसवें मंडल की रचना आधुनिक विद्वानों को अर्वाचीन सी प्रतीत होती है। कात्यायन ने दसों मंडलों की रचना के अक्षरों तक की गणना कर जो विभाजन किया है, वह इस प्रकार है - मण्डल - 10 सूक्त - 1017 ऋचा - 10580 - 1-4 शब्द- 1,53,826 अक्षर- 4,32,000 इसके अतिरिक्त "वालखिल्य" नामक 11 सूक्त 8 वें मण्डल के 49 से 59 तक हैं। इनके मंत्रों की संख्या 80 है। कुछ "खिल" सूक्त भी है। खिल का अर्थ बाद में जोडे गये मंत्र । ऋग्वेद की रचना इतनी व्यवस्थित रहने के कारण ही, उसमें कोई परिवर्तन हुए बगैर वह हमें उपलब्ध है। दस मण्डलों के ऋषियों के बारे में कात्यायन ने कहा है : शतर्चिन आद्यमण्डले ऽन्ते क्षुद्रसूक्तमहासूक्ताः मध्यमेषु माध्यमाः । अर्थ :- ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के ऋषियों को सौ ऋचा रचनेवाले, अंतिम मण्डल के ऋषियों को क्षुद्र सूक्त एवं । महासूक्त रचने वाले तथा मध्यम मण्डल के ऋषियों को माध्यम, यह संज्ञा है। प्रारंभ में वेद राशिरूप था। व्यासजी ने उसके चार विभाग किये और अपने चार शिष्यों को पृथक्-पृथक् सिखाये। इसी कारण उन्हें (वेदान् विव्यास यस्मात्-वेदों का विभाजन किया अतः) वेदव्यास "कहा जाने लगा। पातंजल महाभाष्य और चरणव्यूह के अनुसार ऋग्वेद की 21 शाखाएं हैं। उनमें शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन एवं मांडूकायन प्रसिद्ध हैं। शाकल के पांच और बाष्कल के चार प्रकार हैं। ऋग्वेद में मुख्यतः यज्ञ की देवताओं की स्तुति, मानवी जीवन के लिये उपकारक प्रार्थना में और तत्त्वज्ञान विषयक विचार हैं। क्वचित् प्रकृति का सुन्दर वर्णन भी है। मोटे तौर पर सूक्तों का वर्गीकरण इस भांति है : 1) देवतासूक्त, 2) ध्रुवपद, 3) कथा, 4) संवाद, 5) दानस्तुति, 6) तत्त्वज्ञान, 7) संस्कार, 8) मांत्रिक, 9) लौकिक एवं 10) आप्री। इसके 2 ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद हैं। इसका उपवेद है आयुर्वेद। आधुनिकों के मतानुसार इसकी भाषा भारोपीय और आधार वैज्ञानिक है। प्रस्तुत वेद के अर्थज्ञान के लिए पर्याप्त ग्रंथों की रचना हो चुकी है। इसका उपोबलक साहित्य अतिविपुल है। प्राचीन ग्रंथों ने इसकी महत्ता मुक्त कंठ से प्रतिपादित की है। "तैत्तरीय संहिता' में कहा गया है कि "साम" व "यजु" के द्वारा विहित अनुष्ठान दृढ होता है। ___ "यजुस्' एवं “सामवेद" "ऋग्वेद" की विचारधारा से पूर्णतः प्रभावित हैं। सामवेद की ऋचाएं ऋग्वेद पर पूर्णत: आश्रित हैं, उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। अन्यान्य संहिताएं भी ऋग्वेद के आधार पर पल्लवित हैं। यही नहीं, ब्राह्मणों में जितने विचार आएं हैं, उनका मूल रूप ऋग्वेद संहिता में ही मिलता है। आरण्यकों व उपनिषदों में आध्यात्मिक विचार हैं, उन सबका आधार यही ग्रंथ है। उनका निर्माण ऋग्वेद के उन अंशों से हुआ है जो पूर्णतः चिंतन-प्रधान हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में नवीन मत की स्थापना नहीं है, और न स्वतंत्र चिंतन का प्रयास है। उनमें ऋग्वेद के ही मंत्रों की विधि तथा भाषा की छानबीन की गई है और ईश्वर संबंधी विचारों को पल्लवित किया गया है। ऋग्वेद में नाना प्रकार की प्राकृतिक शक्तियों व देवताओं के स्तोत्रों का विशाल संग्रह हैं। विभिन्न सुंदर भावों से ओत प्रोत उद्गारों में, अपनी इष्ट-सिद्धि के हेतु देवताओं से प्रार्थना की गई है। देवताओं में अग्नि, इन्द्र और देवियों में उषा की स्तुति में सूक्त कहे गये हैं। उषा की स्तुति में काव्य की सुंदर छटा प्रस्फुटित हुई हैं। ऋग्वेद की देवता -'यस्य वाक्य स ऋषिः या तेनोच्यते सा देवता" - जिसका वाक्य वा ऋषि तथा जिसे ऋषि ने बताया वह देवता, यह नियम है। ऐसे ऋषिप्रोक्त देवता ऋग्वेद में बहत हैं। उनकी संख्या 33 तथा 3339 बताई गयी है पर इतने नाम ऋग्वेद में नहीं मिलते। वैदिक देवताओं के तीन प्रकार माने गये हैं। 1) पृथिवीस्थ, 2) मध्यमस्थ तथा 3) धुस्थ। देवता के द्विविध रूप का वर्णन ऋग्वेद मे हैं। प्रथम संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड/43 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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