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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "लक्ष्मी-स्वयंवर" नाटक खेलने का आयोजन होता है, जिसमें उर्वशी को लक्ष्मी का अभिनय करना है। प्रमदवन में ही, संयोगवश, पुरुरवा की पत्नी रानी औशीनरी को उर्वशी का वह प्रेमपत्र मिल जाता है और वह कुपित होकर दासी के साथ लौट जाती है। नाटक में अभिनय करते समय उर्वशी पुरुरवा के प्रेम में मग्न हो जाती है और उसके मुंह से पुरुषोत्तम के स्थान पर, संभ्रमवश, 'पुरुरवा' शब्द निकल पडता है। इस पर भरतमुनि क्रोधित होकर उर्वशी को स्वयं-च्युति का शाप देते है। और आदेश देते हैं कि जब तक पुरुरवा उसके पुत्र का मुंह न देख ले, तब तक उसे मर्त्यलोक में ही रहना पडेगा। इधर अपनी राजधानी को लौटे पुरुरवा, उर्वशी के विरह में व्याकल रहते हैं। उर्वशी मर्त्यलोक आकर परुरवा की विरहदशा को देखती है। उसे अपने प्रति उसके अटूट प्रेम की प्रतीति हो जाती है। तब उर्वशी की सखियां उसे पुरुरवा को सौंप कर स्वर्गलोक को लौट जाती हैं। उर्वशीपुरुरवा उल्लासपूर्वक जीवन बिताने लगते हैं। कुछ कालोपरांत वे दोनों गंधमादन पर्वत पर जाकर विहार करने लगते हैं। एक दिन मंदाकिनी के तट पर खेलती हुई एक विद्याधर कुमारी को पुरुरवा देखने लगता है। इससे कुपित होकर उर्वशी कार्तिकेय के गंधमादन उद्यान में चली जाती है। वहां स्त्री-प्रवेश निषिद्ध था। यदि कोई स्त्री वहां जाती, तो लता बन जाती थी। अतः उर्वशी भी वहां जाकर लता बन गई। पुरुरवा उसके वियोग में उन्मत्त की भांति विलाप करते हुए निर्जीव पदार्थो से उर्वशी का पता पूछते फिरते हैं। तभी आकाशवाणी द्वारा निर्देश प्राप्त होता है कि पुरुरवा संगमनीय मणि को अपने पास रख कर लता बनी हुई उर्वशी का आलिंगन करे तो उर्वशी उसे पूर्ववत् प्राप्त हो जायगी। पुरुरवा वैसा ही करते हैं। दोनों राजधानी लौट कर सुखपूर्वक रहने लगते है। बहुत दिनों बाद एक वनवासिनी स्त्री, एक अल्पवयस्क युवक के साथ वहां आती है और उस युवक को महाराज पुरुरवा का पुत्र घोषित करती है। उसी समय उर्वशी का शाप समाप्त हो जाता है, और वह स्वर्गलोक को लौट जाती है। उर्वशी के वियोग में पुरुरवा व्यथित होते हैं, और पुत्र को अभिषिक्त कर, वन में जाकर विरक्त जीवन बिताने की सोचते हैं। तभी नारदजी आते हैं, और उनसे यह सूचना मिलती है कि इन्द्र की इच्छानुसार उर्वशी जीवन पर्यंत उसकी पत्नी बन कर रहेगी। महाकवि कालिदास ने प्रस्तुत त्रोटक में प्राचीन वैदिक कथा को नये रूप में सजाया है। भरतमुनि का शाप उर्वशी का लता में परिवर्तन तथा पुरुरवा का उन्मत्त विलाप आदि कालिदास की अपनी कल्पना है। प्रस्तुत त्रोटक में विप्रलंभ श्रृंगार का वर्णन अधिक है, तथा इसमें नारीसौंदर्य का अत्यंत मोहक चित्र उपस्थित किया गया है। इसमें 23 अर्थोपक्षेपक हैं जिन में 9 विष्कंभक, 3 प्रवेशक और 19 चूलिकाएं हैं। विक्रमोर्वशीय के टीकाकार- 1) काटयवेम, 2) रंगनाथ, 3) अमयचरण, 4) राममय, 5) तारानाथ, 6) एम.आर. काले। विक्रान्तकौरवम् (नाटक) - ले.- हस्तिमल्ल। पितागोविंदभट्ट। जैनाचार्य ई. 13 वीं शती। अंकसंख्या- छह । विख्यातविजयम् (नाटक) - ले.- लक्ष्मणमाणिक्य देव। ई. 16 वीं शती। अंकसंख्या- छह । विषय- अर्जुन की कर्ण पर विजय तथा नकुल का कौरवों के साथ युद्ध। विग्रहव्यावर्तिनी - ले.- नागार्जुन। तर्कशास्त्र से संबंधित रचना। शून्यवाद का मण्डन तथा विरोधी युक्तियों का खण्डन । प्रथम 20 कारिकाओं में पूर्वपक्ष तथा अन्तिम 52 में उत्तरपक्ष वर्णित है। विघ्नेशजन्मोदयम् (रूपक) - ले.- गौरीकान्त द्विज कविसूर्य । रचनाकाल सन् 1799। भीष्माचलेश्वर उमानन्द के आदेश से लिखित । अंकिया नाट पद्धति। गीत संस्कृत तथा असमी में। संस्कृत पद्य भी असमी भाषा के दुलडी, छबि, लछारी आदि छन्दों में। अंकसंख्या- तीन। कथासार- गणेशजन्म पर बधाई देने आये शनि गणेश की ओर नहीं देखते। पार्वती के अनुरोध पर देखते हैं, तो उनकी दृष्टि पडते ही बालक का सिर धड से अलग होता है। नारायण हाथी का सिर लगाकर बालक को जीवित करते हैं। माहिष्मती के राजा कार्तवीर्यार्जुन मुनि जमदग्नि से युद्ध कर उन्हें मारते हैं। पुत्र परशुराम बदला लेने की ठानते हैं। शिवजी से पाशुपतास्त्र पाकर, वे कीर्तवीर्य को मारते हैं। बाद में शिवदर्शन के लिए आने पर उन्हें गणेश रोकते हैं परशुराम उनके दांत पर परशु से प्रहार कर उसे तोडते है। यह देख पार्वती क्रुद्ध होती है, परन्तु नारायण सबको शांत करते हैं। विदग्धमाधवम् (नाटक) - ले.- रूपगोस्वामी। रचना- सन 1532 में। संक्षिप्त कथा- इस नाटक की कथावस्तु राधा और कृष्ण की प्रेमलीलाओं का वर्णन है। प्रथम अंक में कंस के भय से राधा का विवाह अभिमन्यु नामक गोप से कर दिया जाता है। अभिमन्यु राधा को मथुरा ले जाना चाहता है, इससे पौर्णमासी (नारद की शिष्या) चिंतित हो जाती है। वह नांदीमुखी को कृष्ण और राधा में परस्पर प्रेमभाव बढाने के लिए नियुक्त करती है। द्वितीय अंक में कृष्ण पर आसक्त राधा को विशाखा. कष्ण का चित्रपट दिखाती है. जिससे उनकी दशा और अधिक खराब हो जाती है। विशाखा राधा से श्रीकष्ण के लिए पत्र लिखवाती है और श्रीकष्ण को जाकर देती है। तृतीय अंक में वर्णित है कि चन्द्रावली भी कृष्ण से प्रेम करती है । वह श्रीकृष्ण से गोत्रस्खलन में राधा का नाम सुनकर क्रुद्ध होती है, पर श्रीकृष्ण उसे मना लेते हैं। उधर राधा भी चन्द्रावली और कृष्ण के प्रेम की बात जान कर कृष्ण से रुष्ट होती है। चतुर्थ अंक में राधा कृष्ण की मुरली छुपा लेती है और स्वयं मुरली बजाती है किन्तु उसकी संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 333 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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