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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra को मुख्य या गौण नहीं मानते। भर्तृहरि के अनुसार अर्थविनिश्चय के आधार हैं- वाक्य, प्रकरण, अर्थ, साहचर्य आदि । (3) पदकांड इसमें पद से संबद्ध नाम या सुबंत के साथ विभक्ति, संख्या, लिंग, द्रव्य, वृत्ति, जाति पर भी विचार किया गया है। इसमें 14 उद्देश हैं जिनमें क्रमशः जाति, गुण, साधन, क्रिया, काल, संख्या, लिंग, पुरुष, उपग्रह एवं वृत्ति के संबंध में मौलिक विचार व्यक्त किये गये हैं। वाक्यप्रकाश विवरणम् ले. गोकुलनाथ ई. 17 वीं शती । वाक्यसुधा ले. भारती कृष्णतीर्थ ई. 14 वीं शती ग्रंथ की विषयवस्तु के आधार पर इसे दृग्दृश्यविवेक नाम भी दिया गया है। इस छोटे से ग्रंथ में दृग् (आत्मा) तथा दृश्य (जगत्) का मार्मिक विवेचन है। ब्रह्मानंद भारती तथा आनंदज्ञान ( आनंदगिरि) ने इस पर टीकाएं लिखी हैं। - - 1 वागीश्वरीकल्प श्लोक- 1301 - www.kobatirth.org वाग्भटालंकार ले. वाग्भट ( प्रथम ) । जैनाचार्य । प्रस्तुत काव्यशास्त्रीय ग्रंथ की रचना 5 परिच्छेदों में हुई है। इसमें 260 पद्य हैं जिनमें काव्य-शास्त्र के सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन है। प्रथम परिच्छेद में काव्य के स्वरूप व हेतु का वर्णन है। द्वितीय में काव्य के विविध भेद, पद, वाक्य एवं अर्थदोष तथा तृतीय में 10 गुणों का विवेचन है। चतुर्थ परिच्छेद में 4 शब्दालंकारों व 35 अर्थालंकारों तथा गौडी एवं वैदर्भी रोति का विवरण है। पंचम परिच्छेद में 9 रसों व नायक-नायिका भेद का निरूपण है। इस ग्रंथ में संस्कृत तथा प्राकृत दोनों ही भाषाओं के उदाहरण दिये गये हैं । ग्रंथ में राजा जयसिंह तथा राजधानी अनहिलवाड का उल्लेख है । वाग्भटालंकार के टीकाकार- 1) आदिनाथ या मुनिवर्धनसूरि ई 5 वीं शती (2) सिंहदेवगण, (3) मूर्तिधर, (4) क्षेमहंसगणि, (5) समयसुन्दर, (6) अनन्तभट्ट के पुत्र गणेश, (7) राजहंस, (8) वाचनाचार्य तथा अज्ञात लेखकों की टीकाएं। हिंदी अनुवादक डॉ. सत्यव्रतसिंह । वाग्वतीतीर्थयात्राप्रकाश ले. गौरीदत्त । रामभद्र के पुत्र । बालवृत्तिरहस्यम् (या वाघुलगृह्यागमवृत्तिरहस्य) ले. - सगमग्रामवासी मिश्र । विषय ऋणत्रय - अपाकरण, ब्रह्मचर्य, संस्कार, आह्निक, श्राद्ध एवं स्त्रीधर्म । वाघुलशाखा (कृष्णयजुर्वेदीय) - तैत्तिरीय संहिता से संबन्ध रखने वाली, केरल- देश में प्रसिद्ध यह सौत्र शाखा है। इस का कल्प प्राप्त हुआ है। - - वाङ्मयम् - सन् 1940 में वाराणसी से इस पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह पत्र शीघ्र ही बंद हो गया। वाचकस्तव ( काव्य ) ले. म.म. कृष्णशास्त्री घुले नागपुर निवासी । - वाजसनेय-संहिता ले. शुक्ल यजुर्वेद की एक संहिता 324 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाजि का अर्थ है घोडा घोडे का रूप लेकर सूर्य ने याज्ञवल्क्य को यह संहिता दी, इस लिये इसे "वाजसनेय" संहिता कहा गया है। मध्याह्न में दिये जाने के अथवा याज्ञवल्क्य के शिष्य मध्यंदिन द्वारा प्रचारित किये जाने के कारण इसे 'माध्यंदिन' भी कहा जाता है। इस मतानुसार इस संहिता के अंतिम 15 अध्याय विभिन्न विषयों के अनुसार बाद में जोड़े गये हैं। इस संहिता के कुछ मंत्र पद्यात्मक और कुछ गद्यात्मक हैं। गद्यमंत्रों को यजुस् कहा गया है:इस कारण यह यजुर्वेद का ही भाग माना गया। इसका अंतिम अध्याय ही सुप्रसिद्ध ईशावास्य उपनिषद् है। इस संहिता के मंत्रों का प्रतिपाद्य विषय मुख्यतया यज्ञसंस्था है । श्रौताचार्य धुंडिराज शास्त्री बापट के मतानुसार यजुः संहिता के मंत्रवाड्मय का महत्त्वपूर्ण उपयोग ऐतिहासिक ज्ञानप्राप्ति में है। वैदिक वाङ्मय में पुरोहित शब्द को विशेष स्थान प्राप्त है- अहोरात्र राष्ट्र के हितसंवर्धन और कल्याण की चिंता करना तत्कालीन पुरोहितों का काम था। वे उचित समय पर राजा को उचित सलाह दिया करते थे । इस संहिता का एक मंत्र इस प्रकार है : संशितं में ब्रह्म संशितं वीर्यं बलम् । संशित क्षत्र जितु यस्याहमस्मि पुरोहितः ।। अर्थात् शास्त्रशुद्ध आचरण से मैने अपना ब्रह्मतेज सुरक्षित रखा है। मैने अपने शरीर सामर्थ्य व इन्द्रियों की समस्त शक्तियां कार्यक्षम रखी हैं। इतना ही नहीं तो जिस राजा का मैं पुरोहित हूँ, उस राजा के विजय-शाली आप्रतेज को भी सदा तीव्रता से वृद्धिंगत करता रहा हूं। इस संहिता में कुछ प्रार्थना मंत्र भी हैं जिनसे तत्कालीन राष्ट्रीय वृत्ति का परिचय मिलता है। वाजसनेय शाखाएं- याज्ञवल्क्य-प्रणीत शुक्ल यजुर्वेद की पन्द्रह वाजसनेय शाखाएं निम्रप्रकार हैं 1) काव्य, 2) माध्यन्दिन, 3 ) शाषीय, 4) तापायनीय, 5) कापाल, 6) पौण्डरवत्स, 7) आवटिक, 9 पाराशर्य, 10 वैधेय, 11 नैत्रेय, 12 गालव, 13 औधेय, 14 बैजव और 15 कात्यायनीय । वाजसनेय शाखा के ब्राह्मण "ष" का उच्चारण “ख” करते हैं यथा सहस्रशीर्षा पुरुषः को वे सहस्रशीर्खा पुरुखः " कहेंगे । इस संहिता पर उव्वट, महीधर, माधव, अनंतदेव व आनंदभट्ट ने भाष्य लिखे हैं । वाजसनेयि प्रातिशाख्यम् - ले. कात्यायन मुनि । वार्तिककार कात्यायन से भिन्न तथा पाणिनि के पूर्ववर्ती। यह "शुक्ल यजुर्वेद" का प्रातिशाख्य है इसमें 8 अध्याय हैं जिनका मुख्य प्रतिपाद्य है परिभाषा, स्वर व संस्कार का विस्तारपूर्वक विवेचन | प्रथम अध्याय में पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिये गए हैं एवं द्वितीय में 3 प्रकार के स्वरों का लक्षण व विशिष्टता का प्रतिपादन है। तृतीय से लेकर सप्तम अध्यायों में संधि का विस्तृत विवेचन है। इनमें संधि, पद-पाठ बनाने For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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