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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहनतंत्रम् - श्लोक- 12951 मोहराज-पराजयम् (प्रतीक-नाटक) - ले.- यशःपाल। ई. 14 वीं शती। जैन साहित्य में यह नाटक प्रसिद्ध है। इस नाटक में कल्पित व वास्तव पात्रों का परस्पर संयोग करते हुए धर्मचर्चा की गई है। भगवान् महावीर के उत्त्सव-प्रसंग पर इसका प्रयोग किया गया था। इस नाटक की रचना कृष्ण मिश्र के प्रबोधचंद्रोदय के अनुकरण पर हुई है। मौद (एक लुप्त वेदशाखा) - शाबर भाष्य में (1-1-30) अथर्ववेद की इस शाखा का नाम उल्लिखित है। इस शाखा का कुछ भी साहित्य उपलब्ध नहीं है। यक्षडामर - भैरव प्रोक्त। श्लोक- 4001 यक्ष-मिलनम् (काव्य) अपरनाम- यक्षसमागम) - ले.परमेश्वर झा। इसमें महाकवि कालिदास के "मेघदूत' के उत्तराख्यान का वर्णन है। कवि ने यक्ष व उसकी प्रेयसी के मिलन का वर्णन किया है। देवोत्थान होने पर यक्ष प्रेयसी के पास आकर उसका कशल प्रेम पूछता है। वह अपनी प्रिया से विविध प्रकार की प्रणय कथाएं एवं प्रणय लीलायें वर्णित करता है। प्रातः काल होने पर बंदीजन के मधुर गीतों का श्रवण कर उसकी निद्रा टूटती है और वह डरता-डरता कुबेर के निकट जाकर उन्हें प्रणाम करता है। कुबेर उससे प्रसन्न होते हैं और उसे अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य-भार सौपते हैं। यक्ष व यक्ष-पत्नी अधिक दिनों तक सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इसमें कुल 35 श्लोक हैं •और मदाक्रांता छंद प्रयुक्त हुआ है। इस काव्य का प्रकाशन (1817 शके में) दरभंगा से हुआ है। यक्षिणीपद्धति - ले.- मल्लीनाथ। श्लोक- 30। यह रत्नमाला शाबरतंत्र से गृहीत है। यक्षिणीसाधनविधि - ले.- श्रीनाथ। श्लोक- 401 यक्षोल्लासम् - ले.- कृष्णमूर्ति। पिता- सर्वशास्त्री। ई. 17 वीं शती। मेघदूत की यक्षपत्नी का प्रतिसंदेश इस संदेशकाव्य का विषय है। कवि अपना निर्देश “अभिनव-कालिदास' उपाधि से करता है। यजनावली - प्रकरण- 9। श्लोक- 14001 विषय- विष्णु भगवान् की अर्चा-पूजा। यजुःप्रातिशाख्यभाष्यम् - ले.- अनंताचार्य । ई. 18 वीं शती। यजुर्वल्लभा (नामान्तर- कर्मसरणि) - ले. विठ्ठल दीक्षित।। पिता- वल्लभचार्य । विषय-आह्निक, संस्कार, एवं आवसथ्याधान गृह्याग्नि की स्थापना यजुर्वेद के अनुसार। तीन काण्ड। यजुर्वेद (अपरनाम- अध्वरवेद) - इस वेद की मुख्य देवता वायु है और आचार्य हैं वेदव्यास के शिष्य वैशंपायन । महाभाष्य, चरणव्यूह और पुराणों के अनुसार यजुर्वेद की शाखाएं 86, 100, 101, 107 या 109 मानी जाती हैं किंतु आज केवल 5-6 शाखाएं उपलब्ध हैं। यज्ञ-संपादन के लिये "अध्वर्यु' नामक ऋत्विज् का जिस वेद से संबंध स्थापित किया जाता है, उसे "यजुर्वेद" कहते हैं। इसमें अध्वर्यु के लिये ही वैदिक प्रार्थनाएं संगृहीत हैं। "यजुर्वेद" वैदिक कर्मकांड का प्रधान आधार है, और इसमें यजुषों का संग्रह किया गया है। कर्म की प्रधानता के कारण समस्त वैदिक वाङ्मय में “यजुर्वेद" का अपना स्वतंत्र स्थान है। "यजुर्वेद" से संबद्ध ऋत्विज् (अध्वर्यु) को यज्ञ का संचालक माना जाता है। __"यजुर्वेद" संबंधित वाङ्मय अत्यंत विस्तृत था, किंतु संप्रति उसकी समस्त शाखाएं उपलब्ध नहीं होती। महाभाष्यकार पतंजलि के अनुसार इसकी सौ शाखाएं थीं। इस समय इसकी मात्र दो प्रमुख शाखाएं प्रसिद्ध हैं- "कृष्णयजुर्वेद" व "शुक्ल यजुर्वेद"। इनमें भी प्रतिपाद्य विषय की प्रधानता के कारण "शुक्ल यजुर्वेद" अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। "शुक्ल यजुर्वेद" की मंत्र-संहिता को "वाजसनेयी संहिता" कहते हैं। इसमें 40 अध्याय। 303 अनुवाक तथा 1975 कंडिकाएं या मंत्र हैं तथा अंतिम 15 अध्याय "खिल" कहे जाते हैं। प्रारंभिक दो अध्यायों में दर्श एवं पौर्णिमास यज्ञों से संबद्ध मंत्र वर्णित हैं, तथा तृतीय अध्याय में अग्निहोत्र और चातुर्मास्य यज्ञों के लिये उपयोगी मंत्र संग्रहित हैं। चतुर्थ से अष्टम अध्याय तक सोमयागों का वर्णन है। इनमें सवन (प्रातः, मध्याह्न व सायंकाल के यज्ञ), एकाह (एक दिन में समाप्त होने वाला यज्ञ) तथा राजसूय यज्ञ का वर्णन है। राजसूय के अंतर्गत द्यूत-क्रीडा, अस्त्र-क्रीडा आदि नाना प्रकार की राजोचित क्रीडाएं वर्णित हैं। 11 वें से 18 वें अध्याय तक "अग्निचयन" या यज्ञीय होमाग्नि के लिये वेदी के निर्माण का वर्णन किया गया है। इन अठराह अध्यायों के अधिकांश मंत्र कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में पाये जाते हैं। 19 से 21 वें अध्याय में सौत्रामणि यज्ञ की विधि का वर्णन है, तथा 22 से 25 वें अध्याय में अश्वमेध का विधान किया गया है। 26 से 29 वें अध्याय में "खिलमंत्र" (परिशिष्ट) संकलित हैं, और 30 वें अध्याय में पुरुषमेध वर्णित है। 31 वें अध्याय में “पुरुषसूक्त" है जिसमें ऋग्वेद से 6 मंत्र अधिक हैं। 32 वें व 33 वें अध्याय में "शिवसंकल्प" का विवेचन किया गया है। 35 वें अध्याय में पितृमेध तथा 36 वें से 38 वें अध्याय तक प्रवर्दीयाग वर्णित है। इसके अंतिम अध्याय में "ईशावास्य उपनिषद्" है। "शुक्ल यजुर्वेद" की दो संहिताएं हैं माध्यंदिन एवं काण्व। मद्रास से प्रकाशित काण्वसंहिता में 40 अध्याय, 328 अनुवाक तथा 2086 मंत्र हैं। माध्यंदिन संहिता के मंत्रों की संख्या 1975 है। शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, शिक्षा आदि वाङ्मय पर्याप्त है। कृष्ण यजुर्वेद की काठक, कपिष्ठल, कठ, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 281 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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