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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुबेर प्रसन्न होकर यक्ष को अलकापुरी जाने की अनुमति देता है, तथा यक्ष का यक्षिणी से मिलन होता है । I मेघदौत्यम्ले डा. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य कलकतानिवासी। मेघदूत पर आधारित संगीतिका (2) ले त्रैलाक्यमोहन गुह ( नियोगी) । यह दूतकाव्य है। मेघनादवधम् लक्ष्मणगढ - ऋषिकुल के निवासी कवीन्द्र परमानन्द शर्मा (ई. 19-20 वीं शती) ने काव्यमय संपूर्ण रामचरित्र ग्रंथित किया है। उसका यह एक भाग है। शेष भाग अन्यत्र उद्धृत हैं। (2) ले अमियनाथ चक्रवर्ती । ई. 20 वीं शती । - मेघप्रतिसंदेशकथा ले. मंदिकल रामशास्त्री । मैसूर राज्य के प्रधान पंडित । इस संदेश काव्य की रचना 1923 ई. के आस-पास हुई थी। इसमें दो सर्ग हैं जिनमें 68 + 96 = 164 श्लोक हैं। इसमें एकमात्र मंदाक्रता छंद का ही प्रयोग हुआ है। इसमें कवि ने मेघसंदेश की कथा का पल्लवन किया है। इसके प्रथम सर्ग में यक्षी के प्रति संदेश का वर्णन एवं द्वितीय सर्ग में अलका से लेकर रामेश्वर व धनुष्कोटि तक के मार्ग का वर्णन है। यक्ष का संदेश सुन कर यक्षिणी प्रसन्न होती है, और विरह व्यथा के कारण अशक्त होने पर भी किसी प्रकार मेघ से वार्तालाप करती है । वह मेघ को भगवान् का वरदान मान कर उसकी उदारता एवं करुणा की प्रशंसा करती हुई यक्ष के संदेश का उत्तर देती है । प्रतिसंदेश में वह यक्ष के सद्गुणों का कथन कर अपनी विरह-दशा एवं घर की दुरवस्था का वर्णन कर शिवजी की कृपा से शाप के शांत होने की सूचना देती है। अंत में वह यक्ष को शीघ्र ही लौट आने की प्रार्थना करती है। - www.kobatirth.org - - मेघमाला रुद्रयामलान्तर्गत शिव-पार्वती संवाद रूप। श्लोक1044। अध्याय- 11 विषय मेघप्रभेद, मेघगर्जन, काकरुत आदि का फलाफल । मेघमालाव्रतकथा ले. श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती । मेघमेदुरमेदिनीयम् ले डा. रमा चौधुरी (20 वीं शती)। उज्जयिनी के कालिदास समारोह में अभिनीत दृश्यसंख्या- नौ "मेघदूत" के आगे तथा पीछे की घटनाओं का काल्पनिक चित्रण । एकोक्तियों की बहुलता। पूरा सप्तम अंक यक्ष की तथा अष्टम अंक यक्षिणी की एकोक्ति मात्र है । कथासारयक्षकन्या कमलकलिका को यक्ष अरुणकिरण नदी में डूबने से बचा लेता है। तब से दोनों प्रेमासक्त हैं, परंतु कुबेर का निकटवर्ती प्रचण्ड - प्रताप कमलकलिका को चाहता है। नायिका उसे अपमानित कर अरुण-किरण को वरती है। प्रेममग्ननायक द्वारा कुबेर के कमलवन की रक्षा करने में त्रुटि होती है । कुबेर उस पर कुद्ध होते हैं तथा उसे निष्कासित करते हैं। आषाढ में मेघ को देखकर विरहातुर यक्ष उसके द्वारा अपनी - - पत्नी को संदेश भेजता है। अंत में अलकापुरी लौटकर उसका मिलन होता है। - - मेघसंदेशविमर्श ले. आर. कृष्णम्माचार्य यह निबंध मद्रास । में प्रकाशित हुआ । मेघाभ्युदयकाव्यम् ले मानाङ्क ई. 10 वीं शती मेघेश्वरम् ले हस्तिमल्ल पिता गोविंदभट्ट जैनाचार्य मेलनतीर्थम् ले. डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी विविधता में एकता का संदेश देनेवाली कृति । अंकसंख्या- दस । प्रत्येक अंक में क्रमशः अथर्वन् ऋषि अगस्त्य, सम्राट् अशोक, अकबर, चैतन्य महाप्रभु, विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर गांधीजी और जवाहरलाल नेहरू की जीवनगाथा से विविध विचार प्रवाहों द्वारा सांस्कृतिक एकता का प्रस्तुतीकरण है । मेदिनीकोश ले. मेदिनीकर। ई. 12 वीं शती एक सुप्रसिद्ध शब्दकोश | - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेधा सन् 1961 में रायपुर के राजकीय दूधाधारी-संस्कृत विद्यालय से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादन विद्यालय के प्राचार्य करते हैं और इसमें प्राध्यापकों एवं छात्रों का रचनाएं प्रकाशित होती हैं। मेनका वडुवर डोरास्वामी अय्यंगार का तमिल उपन्यास । अनुवादकर्ता ताताचार्य । उद्यानपत्रिका में क्रमशः प्रकाशित । मेरुतंत्रम् शिव-पार्वती संवाद रूप महातंत्र 35 प्रकाश में पूर्ण । शिवजी द्वारा उपदिष्ट 108 तंत्रों में इसका स्थान सब से ऊंचा है, इसलिए इसका नाम मेरुतंत्र है। खेमराज श्रीकृष्णदास, मुंबई द्वारा 1908 ई. में इसका प्रकाशन हो चुका है। जलन्धर के भय से मेरु की शरण में गये हुए देवताओं और ऋषियों के लिए शिवजी ने इसका उपदेश दिया था। प्रधान विषय संस्कार दीक्षा, होमविधि, आह्निक (या आम्नाय रहस्य) पुरश्चर्या, सिद्धिस्थिरीकरणमुद्रालक्षण, पार्थिवपूजन विधि, पुरश्चर्याकौलिकाचार, कलिसंस्थित सविधि मंत्र, वेदमंत्र नवग्रहमंत्र, प्रत्यंगिरामंत्र, वैदिकमंत्र, दक्षिणाम्नाय गणपतिमंत्र, ऊर्ध्वानाच गणपतिमंत्र, पश्चिमाम्नाय गणपतिमंत्र, उत्तरानाय गणपतिमंत्र, सूर्यमंत्र, ब्रह्मादि अष्टशक्तिमंत्र, दश-दिगीशों के मंत्र, दीपविधि आदि। यह तंत्र वाममार्गी और दक्षिणमार्गी दोनों को समान रूप से मान्य है । · For Private and Personal Use Only | मेरुपंक्तिकथा ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती । मेरुपूजा - ले- छत्रसेन । गुरु- समन्तभद्र। ई. 18 वीं शती । मेरुसाधना श्लोक- 4001 -- मैत्रायणी उपनिषद् (मैत्री-उपनिषद्) - यह उपनिषद् गद्यात्मक है और इसमें 7 प्रपाठक हैं। इसमें स्थान-स्थान पर पद्य का भी प्रयोग हुआ है तथा सांख्य-सिद्धांत, योग के षडंगों का वर्णन और हठयोग के मंत्र सिद्धांतों का कथन किया गया है। इसमें अनेक उपनिषदों के उद्धरण दिये गये है, जिससे संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 279
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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