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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंजुल-नैषधम् (नाटक) - ले.- म.म. वेंकट रंगनाथ (समय1822- 1900)। सन 1886 में विशाखापट्टन से प्रकाशित । प्रकाशक वेंकट रंगनाथ शर्मा, लेखक के पौत्र। अंकसंख्यासात। प्रत्येक अंक में शताधिक श्लोक हैं। विषय- निषधअधिपति नलराजा की कथा। मंजूषा (साप्ताहिकी पत्रिका) - सन 1935 में कलकत्ता से इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। डा. क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय इसके संपादक थे। 1937 में इसका प्रकाशन स्थगित हुआ जो 1949 से पुनः प्रारंभ हुआ और 1961 तक चला। इसका वार्षिक मूल्य छह रु. था और प्रकाशन स्थल 8, भूपेन्द्र बोस एव्हेन्यू. कलकत्ता-4 था। प्रारंभ में यह व्याकरण विषयक पत्रिका थी, बाद में नाटक तथा अन्य अनुवाद सामग्री का प्रकाशन भी हुआ। मंजूषा- ले.- भास्करराय। पिता- गंभीरराय। नवरत्नमाला की। टीका। मठप्रतिष्ठातत्त्वम् - ले.-रघुनन्दन । मठाम्नायादिविचार - विषय- शंकराचार्य सम्प्रदाय के प्रमुख सात मठों के धार्मिक कृत्यों का प्रतिपादन। मठोत्सर्ग - ले.. कमलाकर। (2) अग्निदेव। मण्डपकर्त्तव्यतापूजापद्धति - ले.- शिवराम शुक्ल । मण्डपकुण्डमण्डनम् - ले,- नरसिंहभट्ट सप्तर्षि। इस पर लेखक की प्रकाशिका नामक टीका है। मण्डपकुण्डसिद्धि - ले.- विट्ठल दीक्षित। वरशर्मा के पुत्र । श.सं. 1541 (1619-20 ई.) में काशी में प्रणीत। इस पर विवृति नामक लेखक कृत टीका है। वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से प्रकाशित। मण्डपोद्वासनप्रयोग - धरणीधर के पुत्र द्वारा लिखित। मंडलब्राह्मणोपनिषद् - एक यजुर्वेदीय उपनिषद् । इसके वक्ता सूर्यनारायण तथा श्रोता याज्ञवल्क्य मुनि हैं। इसमें पांच भाग हैं तथा प्रत्येक भाग को ब्राह्मण संज्ञा है। इसमें अष्टांगयोग, शांभवीमुद्रा, अमनस्क स्थिति, पंच आकाश तथा अर्थवाद इत्यादि विषय क्रमशः प्रतिपादित हैं। मणिकांचन-समन्वय (प्रहसन) - ले.- विष्णुपद भट्टाचार्य (श. 20)। मंजूषा में प्रकाशित। अंकसंख्या- दो। स्त्रीपात्रविरहित। कथानक बंगाल में प्रचलित एक लोककथा पर आधारित है। जनसामान्य से सम्बद्ध घटनाओं तथा ग्रामीण जीवनचर्या की झांकी इसमें दिखाई देती है। कथासारमधु बेचने वाले धूर्त शर्शरीक की मुठभेड गुड बेचने वाले धूर्त दर्दुरक रो होती है। दोनों में स्पर्द्धावश नोंकझोक होने पर धनपति दोनों चीजें चखकर घोषित करता है कि दोनों ही बनावटी वस्तुएं बेचते हैं। धनपति दोनों के व्यवसाय छुडा कर, गाय चराने की और आम्रवृक्ष सींचने की नौकरी दिलाता है। आम्रवृक्ष के तले मुद्राओं से भरा ताम्रकलश पाकर दोनों नोकरी छोड भागते हैं और कलश बेचकर आधा-आधा मूल्य बांटने का निर्णय लेते हैं। कलश शर्शरीक के घर रखा जाता है। शर्शरीक अपने पुत्र चतुरक को पाठ पढाता है कि दर्दुरक के आने पर कहना कि पिता कल रात विषूचिका से मर गये, कलश के विषय में मैं नहीं जानता। चतुरक वैसा करता है, परंतु दर्दरक उसकी चाल समझ कर, उसे अग्नि दिलाने स्वयं समशान तक जाता है। स्मशान में डाकुओं को देख वह झाड़ी में छिप जाता है। डाकू देखते हैं कि चिता में लिटाया शव करवट बदल रहा है। इतने में दर्दुरक झाडी में से भयानक आवाजें करता है। पिशाच के भय से दस्यु चुरायी हुई सम्पत्ति छोड भाग जाते है। शर्शरीक और दर्दुरक में पहले झडप होती है, परंतु अन्त में दस्युओं द्वारा छोडी सम्पत्ति का भी विभाजन करने पर दोनों में प्रेमालाप होता है, यही मणि-कांचन संयोग है। मणिकान्ति - ले.- यज्ञेश्वर सदाशिव रोडे । विषय- ज्योतिषशास्त्र। यह टीकात्मक ग्रंथ है। मणिमंजूषा (रूपक) - ले.- एस. के.रामनाथशास्त्री (श. 20) विषय- दशकुमारचरित में वर्णित अपहारवर्मा का चरित्र । दृश्यसंख्या- 18। गीतों का बाहुल्य ! संस्कृत साहित्य परिषत् पत्रिका में सन 1947 में प्रकाशित । मणिमाला - ले.- अनादि मिश्र। रचना काल- 1750 ई. के लगभग। चार अंकों की नाटिका। प्रथम अभिनय उज्जयिनी में दुगदिवी के शरद् उत्सव में हुआ था। खण्डपारा (उत्कल) के राजा नारायण मंगपार की इच्छापूर्ति हेतु इसकी रचना हुई ।इसमें अलङ्कारों का प्रचुर प्रयोग, पद्यों की अधिकता, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, शिखरिणी, द्रुतविलम्बित, पुष्धिताग्रा, स्रग्धरा पृथ्वी, इ. वृत्तों के साथ चण्डी तथा लोला आदि अप्रचलित छंद भी प्रयुक्त हैं। प्रधान रस शृंगार । संस्कृत के साथ प्राकृत का भी प्रयोग किया गया है। कथावस्तु उत्पाद्य है। कथासार- उज्जयिनी नरेश शृंगारशृंग, पुष्करद्वीप की राजकुमारी मणिमाला पर अनुरक्त है। महारानी कुपित है। नायक पत्नी को अपना स्वप्न बताता है कि मणिमाला से विवाह करने से मेरे सम्राट् बनने की संभावना है। पुष्करद्वीप में मणिमाला का विवाह गंधर्वराज से करने की तैयारियां चल रही हैं। परंतु मणिमाला खिन्न है। इतने में सुसिद्धि-साधिनी, मणिमाला को कनकनौका में बिठाकर उज्जयिनी के लिए प्रस्थान करती है। नायक को सूचना मिलती है कि मणिमाला आ गई। वह उसे वरमाला पहनाने ही जा रही है, कि द्वन्द्वदंष्ट्र नामक राक्षस उसे अपहृत करता है। नायक विलाप करता है। उसी समय अद्भुतभूति वहां, आकर कहता है कि क्रौन्चपर्वत पर स्वर्णवृक्ष के मणिसम्पुट में रहने वाले कीटराज में द्वन्द्वदंष्ट्र का प्राण है। उसी स्वर्णवृक्ष के तले मणिमाला 246/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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