SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ई. 11 शास्ति इस विसेना के उपोद्घात में, टीकाकार ने अपना परिचय दिया है। प्राचीन है, जिसके तात्पर्य का विनिश्चय श्रीधर स्वामी ने जितनी निष्ठा आचार्यों एवं टीकाकारों में शंकराचार्य, श्रीधर, चैतन्य, जीव, एवं विद्वत्ता से किया, वह अन्यत्र दुर्लभ है। रूप, सनातन प्रभृति का सादर उल्लेख किया है, और विशेष ___ भावार्थ-दीपिका शंकराचार्यजी के अद्वैत की अनुयायिनी है, बात यह कि सिक्ख गुरु की वंदना की है। परंतु भिन्न मत होने पर भी चैतन्य संप्रदाय का आदर. इसके (वंदे श्रीनानक-गुरून् शास्त्रबोधगुरोर्गुरुम् । महत्त्व तथा प्रामाण्य का पर्याप्त परिचायक है। इसकी उत्कृष्टता गुरुशिष्यतया ख्याता यच्छिष्या एव केवलम्।। के विषय में नाभादासजी ने अपने 'भक्त-माल' में निम्न आख्यान प्रस्तुत टीका भागवत के श्लोकों में अंतर्निहित भावों का दिया है : विभासित करने वाली अत्यंत रसमयी व्याख्या है। राधा की श्रीधर के गुरु का नाम परमानंद था जिनकी आज्ञा से परदेवतारूपेण वंदना की गई है, और उन्हींका प्रामुख्य प्रदर्शित काशी में रहकर ही इन्होंने भावार्थदीपिका की रचना की। किया गया है। टीका की शब्दसंपत्ति विपुल है। भाषा में इसकी परीक्षा के निमित्त यह ग्रंथ बिंदुमाधवजी की मूर्ति के माधुर्य एवं प्रवाह है। शब्दों के अनेकार्थ के लिये, विभिन्न सामने रख दिया गया। एक प्रहर के पश्चात् मंदिर के पट कोषों का आश्रय लिया गया है। रास के रस का आवेदन खोलने पर लोगों ने आश्चर्य से देखा कि बिंदुमाधवजी ने इस कराने में प्रस्तुत टीका समर्थ है। टीका स्वयंपूर्ण है। शाब्दिक व्याख्या-ग्रंथ को उपर रखकर, उस पर अपनी उत्कटता सूचक चमत्कार तथा रसमयी स्निग्ध व्याख्या भी प्रस्तुत टीका की मुहर लगा दी। तबसे इसकी ख्याति समस्त भारत में फैल विशेषता है। यह टीका, “अष्टटीका-भागवत" के संस्करण में गई (छप्पय 440) मराठी नाथभागवत के रचयिता एकनाथ प्रकाशित हो चुकी है। महाराज ने अपने ग्रंथ के आरंभ में श्रीधर को सादर प्रणाम किया है। भावविलास - ले.- रुद्र न्यायवाचस्पति। ई. 16 वीं शती। ले.- रामानन्द। ई. 17 वीं शती मानसिंह के पुत्र भावसिंह की प्रशस्ति इस काव्य का विषय है। ले.-अनन्ताचार्य। ई. 18 वीं शती। भावसंग्रह - देवसेन (जैनाचार्य) ई. 10 वीं शती। ले.-ब्रह्मानन्द। आनंदलहरी स्तोत्र की टीका । भावांजलि - कवयित्री श्रीमती नलिनी शुक्ला "व्यथिता" ले.-श्रीरामानन्द वाचस्पति भट्टाचार्य। बीजव्याकरण महातंत्र की एम.ए.पीएच.डी.। आचार्य नरेन्द्रदेव महिला महाविद्यालय में टीका। संस्कृत प्राध्यापिका। प्रस्तुत ग्रंथ में कवयित्री द्वारा रचित 21 ले.-गौरीकान्त सार्वभौम। तर्कभाषा की टीका । भावप्रधान काव्यों का संकलन किया है। अपने इन काव्यों की सुबोध संस्कृत टीका भी लेखिका ने लिखी है, जिसमें भावार्थप्रदीपिका-प्रकाश (वंशीधरी टीका) - ले.-वंशीधर अलंकारों का भी निर्देश सर्वत्र किया है। प्रकाशक शक्तियोगाश्रम, शर्मा । ई. 19 वीं शती (उत्तरार्ध)। श्रीमद्भागवत की टीका। नानाराव घाट, छावनी कानपुर। प्रकाशन वर्ष- 1977। डॉ. श्रीराधारमणदास गोस्वामी के "दीपिका-दीपन" द्वारा श्रीधरी के नलिनी शुक्ला द्वारा लिखित योगशास्त्र विषयक कुछ ग्रंथ तथा भावों की पूर्ण अभिव्यक्ति न हुई देख, श्री. वंशीधरशर्मा ने स्वरूपलहरी, नीरवगान नामक काव्यसंग्रह और कथाम्बरा नामक प्रस्तुत विशालकाय, विशद-भावापन्न, प्रौढ पांडित्यसंपन्न व्याख्या संस्कृत कथासंग्रह भी प्रकाशित हुआ है। लिखकर श्रीधरी (भावार्थ-दीपिका) को सचमुच प्रकाशित भावार्थदीपिका (श्रीधरी)- ले.-श्रीधरस्वामी। ई. 14 वीं किया। श्रीधरी बडी गूढ तथा अनेकत्र इतनी स्वल्प है कि शती (पूर्वार्ध)। श्रीमद्भागवत की टीका भावार्थदीपिका निश्चय - मूल तात्पर्य को समझना नितांत दुष्कर कार्य है। इस काठिन्य ही भागवत के भाव तथा अर्थ की विद्योतिका टीका है। उसी के परिहार हेतु, "भावार्थप्रदीपिका-प्रकाश (वंशीधरी) सर्वथा के आधार पर भागवत-पुराण का भाव खलता और खिलता जागरूक है। वस्तुतः वंशीधरी ही श्रीधरी के श्रृंगारिक दशम है। भावार्थ-दीपिका का वैशिष्ट्य यह है कि यह विशेष विस्तार स्कंध की सर्व प्रथम की गई व्याख्या है। तदनंतर अन्य स्कंधों नहीं करती, भागवतीय पद्यों के कठिन शब्दों की व्याख्या की। प्रस्तुत टीका अलौकिक पांडित्य से पूर्ण तथा प्राचीन स्फुट शब्दों में कर देती है जिससे ग्रंथ का रहस्य विशद आर्ष ग्रंथों के उद्धरणों से परिपुष्ट है। इसमें अनेक शंकाओं रूप से प्रतीत होता है। इस टीका के बिना भागवत के गूढ का समाधान किया गया है। वेद-स्तुति की व्याख्या 5 प्रकार अर्थ को समझना टेढी खीर ही है। इसीलिये अवांतरकालीन से की गई। निःसंदेश यह एक सिद्ध टीका है। सभी टीकाकार इसके ऋणी हैं। यह दूसरी बात है कि अपने भाषा (साप्ताहिक पत्रिका) - जुलाई सन् 1955 से संप्रदाय की मान्यता के विरुद्ध होने पर अनेक व्याख्याकारों पुस्तकाकार "भाषा" नामक पत्रिका का प्रकाशन 6, अरुण्डेलपेट ने यत्र-तत्र श्रीधरी के अर्थ का खंडन किया है, परंतु अधिकांश गुण्टर-2, से आरंभ हुआ। संपादक गो.स. श्रीकाशी वृष्णाचार्य सभी ने इनका अनुगमन किया है। श्रीमद्भागवत अद्वैत ज्ञान और संको. कृष्णसोमयाजी थे। प्रति सोमवार प्रकाशित होने एवं भक्ति रस का मंजुल सांमजस्य प्रस्तुत करने वाला पुराणरत्न वाली इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य पांच रु. था। इसमें संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 239 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy