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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra में उपलब्ध है । गुणाढ्य राजा हाल के दरबारी कवि थे। संप्रति "बड्डकहा" के 3 संस्कृत अनुवाद प्राप्त होते हैं 1) बुधस्वामी कृत "बृहत्कथा - श्लोक-संग्रह" । बुधस्वामी नेपाल निवासी थे। समय 9 वीं शती। ये बृहत्कथा के प्राचीनतम अनुवादक हैं । 2) "बृहत्कथा मंजरी" अनुवादक क्षेमेंद्र बृहत्कथा का यह सर्वाधिक प्रामाणिक अनुवाद है जिसकी श्लोक संख्या 7500 है। इसका समय 11 वीं शती है। इसका हिन्दी अनुवाद किताब - महल इलाहाबाद से हो चुका है। www.kobatirth.org 3) सोमदेव कृत “कथा-सरित्सागर" । सोमदेव काश्मीर- नरेश अनंत के समसामयिक थे। इन्होंने 24 सहस्र श्लोकों का अनुवाद किया है। इसका हिन्दी अनुवाद राष्ट्रभाषा परिषद् पटना से दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका है। बृहत्कथा- कोश ले. हरिषेण । जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती । इसमें 157 कथाए, 12500 श्लोकों में निवेदित हैं। बृहत्कथामंजरी लो. क्षेमेन्द्र राजा शालिवाहन (हाल ) के सभा - पंडित । गुणाढ्य के पैशाची भाषा में लिखित अलौकिक ग्रंथ (बड्डकहा) का पद्यानुवाद। संप्रति "बहृत्कथा" के 3 संस्कृत अनुवाद प्राप्त होते हैं। इनमें से "बृहत्कथा मंजरी"सर्वाधिक प्रामाणिक अनुवाद है। इसकी श्लोक संख्या 7500 है। यह 18 लंबकों में समाप्त हुआ है। इसमें प्रधान कथा, के अतिरिक्त अनेक अवांतर कथाएं भी कही गई हैं। इसका नायक, वत्सराज उदयन का पुत्र नरवाहनदत्त हैं जो अपने बल - पौरुष से अनेक गंधर्वो को परास्त कर उनका चक्रवर्तित्व प्राप्त करता है। वह अनेक गंधर्व-सुंदरियों के साथ विवाह करता है। उसकी पटरानी का नाम मदनमंचुका है। इस कथा का प्रारंभ उदयन व वासवदत्ता के रोमांचक आख्यान से होता है। - - - बृहत्तोषिणी ले. सनातन गोस्वामी श्रीमद्भागवत की मार्मिक व्याख्या । ग्रंथकार चैतन्य मत के मूर्धन्य आचार्य थे । इस ग्रंथ का सार अंश सनातनजी के भतीजे जीव गोस्वामी ने सनातनजी के जीवन काल ही में प्रस्तुत किया। उस ग्रंथ का नाम है- वैष्णव तोषिणी। बृहत्तोषिणी टीका, भागवत के दशम स्कंध के कतिपय प्रसंगों पर ही सीमित है। वृंदावन संस्करण में ब्रह्म-स्तुति ( भाग-10-14), रास पंचाध्यायी, भ्रमरगीत एवं वेदस्तुति पर ही यह टीका प्रकाशित है पूरे दशम स्कंध की व्याख्या न होकर यह इतने ही प्रसंगों की है। प्रस्तुत वृहत्तोषिणी टीका बडी विस्तृत है, तथा गौडीय वैष्णव संप्रदाय की सर्वप्रथम मान्यता प्राप्त होने के कारण उसके तथ्यों का उन्मीलन बडी ही गंभीरतापूर्वक करती है टीकाकार सनातन गोस्वामी की श्रीधरी टीका के प्रति बडी श्रद्धा है। अतः वेदस्तुति के उपोद्घात में श्रीधरस्वामी तथा चैतन्य महाप्रभु को प्रस्तुत टीका के लिखने में प्रेरक व सहायक माना गया है I I श्रीधरस्वामिपादांस्तान् प्रपद्ये दीनवत्सलान् । निजोच्छिष्ट - प्रसादेन ये पुष्णन्त्याश्रितं जनम् । वंदे चैतन्यदेवं तं ततव्याख्यविशेषतः । योऽस्फोरयन्मे श्लोकार्थान् श्रीधरस्वाम्यदीपितान् ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह टीका गोवर्धन में रहकर लिखी गई थी। अतः उसमें गोवर्धन की भी वंदना है। टीका अत्यंत प्रगल्भ, प्रामाणिक एवं प्रमेय-बहुल है। बृहत्पाराशर होरा - ले. पराशर । समय- अनुमानतः ई. 5 वीं शती। फलित ज्योतिष विषयक यह एक प्राचीन ग्रंथ है। यह ग्रंथ 97 अध्यायों में विभक्त है। इसमें वर्णित विषय हैंग्रहगुण-स्वरूप, राशि-स्वरूप, विशेष लग्न, षोडश वर्ग, राशिदृष्टि-कथन, अरिष्टाध्याय, अरिष्ट-भंग, भावविवेचन द्वादशभाव फलनिर्देश, ग्रहस्फुट दृष्टिकथन, कारक, कारकांश - फल, विविध योग, रवियोग, राजयोग, दारिद्रयोग, आयुर्दाय, मारकयोग, दशाफल, विशेष-नक्षत्र - दशाफल, कालचक्र, अष्टकवर्ग, त्रिकोणशोधन, पिंडशोधन, राशिफल, नारजातक, स्त्री- जातक, अंगलक्षण फल, ग्रहशांति, अशुभ जन्म निरूपण, अनिष्ट-योग-शांति आदि । बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् - ले. पराशर। ई. 8 वीं शती । श्लोकसंख्या 12000 I बृहत्संहिता ले. वराहमिहिर । फलित ज्योतिष का यह सर्वमान्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ में ज्योतिष शास्त्र को मानव जीवन के साथ संबद्ध कर, उसे व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया गया है। इस ग्रंथ में सूर्य की गतियों के प्रभावों, चंद्रमा में होने वाले प्रभावों एवं ग्रहों के साथ उसके संबंधों पर विचार कर विभिन्न नक्षत्रों का मनुष्य के भाग्य पर पडने वाले प्रभावों का विवेचन है। इसमें 64 छंद प्रयुक्त हुए हैं। ग्रंथ की शैली प्रभावपूर्ण व कवित्वमयी है। ग्रंथ में व्यक्त प्रतिभा की प्रशंसा पाश्चात्य विद्वानों ने भी की है। (2) ले. व्यास। - For Private and Personal Use Only बृहत्सर्वसिद्धि - ले. अनन्तकीर्ति । जैनाचार्य । ई. 8-9 वीं शती । बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र ले. समन्तभद्र जैनाचार्य समय ई. । प्रथम शती का अन्तिम भाग। पिता शान्तिवर्मा। बृहदारण्यकोपनिषद् - यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण का एक भाग है। सब उपनिषदों में इसका विस्तार अधिक है, इसलिये इसे 'बृहत्' कहा गया है तथा इसका आरण्यक में समावेश होने से इसके नाम में 'आरण्यक' का उल्लेख है । यह "शतपथब्राह्मण" की अंतिम दो शाखाओं से संबंद्ध है। इसमें 3 कांड व प्रत्येक में 2-2 अध्याय हैं। 'तीन कांडों को क्रमशः मधुकांड, याज्ञवल्क्य कांड ( मुनिकांड ) और खिलकांड कहा जाता है। इसके प्रथम अध्याय में मृत्यु द्वारा समस्त पदार्थों को ग्रास लिये जाने का, प्राणी की श्रेष्ठता व सृष्टि निर्माण संबंधी सिद्धांतों का वर्णन रोचक आख्यायिकाओं संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 219
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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