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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ध्यान फल । मकार - ईशान दैवत, गहरा पीला रंग व ऐशान पद की प्राप्ति ध्यान फल । अर्धमात्रा सर्वदैवत्य, स्फटिक के समान स्वच्छ रंग व ध्यान - फल अनामिक पद की प्राप्ति । प्रणवोपासनाविधि ले. गोपीनाथ पाठक । पिता - अग्निहोत्री - - पाठक । प्रणवलक्षणम् - ले. मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती । प्रणयिमाधवचम्पू ले. मा माधव भट्ट । प्रतापनारसिंह ले. रुददेव । भारद्वाज गोत्रज तेजोनारायण के पुत्र । गोदावरीतीरस्थ प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठन) में श, सं. 1632 (1710-11 ई.) में प्रमाणित विषय | संस्कार, पूर्त, अन्त्यष्टि, संन्यास, यति, वास्तुशान्ति, पाकवश, प्रायश्चित्त, कुण्ड, उत्सर्ग, जातिविवेक इ. । - | प्रताप-मानंद ले. रामकृष्ण पिता-माधव । कटक के राजा श्री प्रताप रुद्रदेव के आदेश से लिखित। (ई. 16 वीं शती) इस ग्रंथ के पदार्थ निर्णय, वासरादि-निरूपण, तिथि-निरूपण, प्रति-निरूपण व विष्णु भक्ति नामक 5 विभाग हैं। यह ग्रंथ प्रतापरुद्रनिबंध नाम से भी प्रसिद्ध है । प्रतापरुद्रयशोभूषणम् ले. विद्यानाथ ई. 13-14 वीं शती विद्यानाथ ने संस्कृत साहित्य में नया मार्ग अपनाया जो इसके बाद बहुतों द्वारा अनुकृत हुआ। इस एक ही रचना द्वारा दो कार्यभाग संपन्न हुए हैं अपने आदरणीय राजा या देवता की प्रशंसा तथा साथ साथ साहित्य-शास्त्रीय उदाहरणार्थ रचना | यों तो उद्भट ने ( 6-9 वीं शती) इस प्रकार की रचना कर पार्वतीविवाह और अलंकारशास्त्रीय तत्त्वविवरण का सूत्रपात किया था, पर विद्यानाथ ने राजप्रशंसा की परम्परा का प्रारम्भ किया। इसकी नाट्य रचना "प्रतापरुद्रकल्याणम्" भी इसी प्रकार की है। ( प्रतापरुद्र के शौर्य तथा सद्गुण-वर्णन के साथ संस्कृत नाट्यतन्त्र का सोदाहरण विवेचन ) । प्रस्तुत रचना का पहला प्रकरण नायक-नायिका भेद वर्णन। दूसरा प्रकरण - काव्य का लक्षण और भेद । तीसरा प्रकरण आदर्शनाटक- प्रतापरुद्रदेव का राज्यारोहण समारम्भ, शानदार राज्यव्यवस्था तथा युद्ध में विजयपरम्परा | चौथा प्रकरण रसनिष्पत्ति । पांचवां और छठा प्रकरण - गुणदोष-विवेचन और अन्तिम प्रकरण अलंकार । इस पर कुमारस्वामी कृत "रत्नापण" टीका मिलती है। "रत्नशाण" नामक अन्य अपूर्ण टीका भी प्राप्त होती है। इस ग्रंथा प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है। इसका प्रकाशन मुंबई संस्कृत सीरीज से हुआ है, जिसके संपादक के. पी. त्रिवेदी थे। प्रतापरुद्र- विजयम् (प्रहसन ) ले. डॉ. वेंकटराम राघवन् । विषय - विद्यानाथ के प्रतापरुद्र यशोभूषण का विडम्बन । (अपर नाम विद्यानाथविडम्बन) परवर्ती युग की पतनोन्मुख संस्कृत - www.kobatirth.org - - 200 / संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड - शैली की बुराइयां दिखाने हेतु लिखित अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा का विडम्बित रूप । अंकसंख्या चार विशुद्ध प्रहसन । प्रतापरुद्र के दिग्विजय प्रस्थान से राज्याभिषेक तक की कथा इस रूपक में चित्रित है। - प्रतापविजयम् ले. मूलशंकर मणिलाल याज्ञिक । रचनाकाल - 1926 अंकसंख्या नौ नाट्योचित सुबोध शैली। प्रधान रस- वीर, अंगरस-शृंगार गीतों का बाहुल्य, राग-तालों का निर्देश सभी संवाद संस्कृत में, युद्धनीति का पाण्डित्य, स्वतन्त्रता का संदेश और अलंकारों का प्रयोग इस रूपक की विशेषताएं हैं। कथासार मानसिंह राणा प्रताप को अकबर के साथ मित्रता करने के लिये भोजन पर निमंत्रित करते हैं परंतु राणा प्रताप मानसिंह का साथ नहीं देते। मानसिंह चिढता है। हलदीघाटी का युद्ध होता है और मानसिंह मारा जाता है। अकबर प्रताप के पीछे चर लगाता है, प्रताप वनप्रदेश का आश्रय लेता है। यवनसेना उस प्रदेश को घेरती है। अन्त में दिल्ली से संधिपत्र आता है। प्रतापार्क ले. विश्वेश्वर। पिता रामेश्वर। गोत्र- शांडिल्य । जयसिंह ह पुत्र प्रताप के आदेश से इस की रचना हुई । लेखक के पूर्वज द्वारा लिखित जयसिंह कल्पद्रुम नामक ग्रंथ पर प्रस्तुत ग्रंथ आधारित है। विषय-धर्मशास्त्र । प्रतिज्ञा कौटिल्यम् (रूपक) ले. जग्गू श्री. बकुलभूषण । सन 1963 में बंगलोर से प्रकाशित। भगवान् सम्पत्कुमार के हीरकिरीट उत्सव में अभिनीत अंकसंख्या आठ छाया-तत्त्व की प्रचुरता अर्थगर्भ शब्दावली में "मुद्राराक्षस" के पूर्व का कथाभाग इसमें चित्रित है। कथा का मूलाधार चाणक्यनीति । विशेषताएं रंगमंच पर हाथी का प्रवेश, रंगमंच पर अनेक विभाग जिनमें दूरस्थ घटनाओं का चित्रण, एक ही पद्य में प्रश्नोत्तर, पर्वतेश्वर का विषकन्या के साथ प्रणय प्रसंग आदि । प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ले महाकवि भास। - For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - 1 संक्षिप्त कथा :- इस नाटक में चार अंक हैं। प्रथम अंक में नागवन में शिकार के लिये आये हुए उदयन को प्रद्योत का मंत्री शालंकायन बंदी बना कर उज्जयिनी ले जाता है उदयन का मंत्री यौगन्धरायण उदयन को मुक्त कराने का संकल्प करता है। द्वितीय अंक में शालंकायन कंचुकी के हाथ उदयन की घोषवती नामक वीणा प्रद्योत के पास भेजता है। रानी के कहने पर प्रद्योत अपनी पुत्री वासवदत्ता को वीणा दे देता है । तृतीय अंक में यौगंधरायण विदूषक और रुमण्यान् वेष परिवर्तित करके उदयन सहित वासवदत्ता के अपहरण की योजना बनाते हैं। चतुर्थ अंक में उदयन भद्रावती नामक हाथिनी पर वासवदत्ता को बिठाकर भाग जाता है और उदयन तथा प्रद्योत की सेना में युद्ध होता है जिसमें यौगन्धरायण को बन्दी बनाया जाता है पर वासवदत्ता को उदयन के साथ विवाह का प्रद्योत द्वारा स्वीकार कर लिये जाने पर यौगन्धरायण मुक्त हो जाता है। 1
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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