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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 अपितु सभी कर्मों व योगों का भी अंतिम ध्येय भक्ति ही है भक्ति, सगुण-साकार परमेश्वर पर अधिष्ठित रहती है। भक्ति में वर्ण, शिक्षा-दीक्षा, कुल, संपत्ति अथवा कर्म आदि भेद कदापि संभव नहीं, यह बतलाकर नारद ने भक्ति प्राप्त करने के साधन निम्न प्रकार कथन किये हैं www.kobatirth.org तत्तु विषयत्यागात् सङ्गत्यागाच्च । अव्याहत - भजनात् । लोकेऽपि भगवद्गुण-श्रवणकीर्तनात् । मुख्यतस्तु महत्ययैव भगवत्कृपालेशाद्वा । अर्थ- विषयत्वाग, संगत्याग, अखंडनामस्मरण, भगवान् के गुण-कर्मों का सामूहिक श्रवण-कीर्तन आदि है भक्ति के साधन किंतु वह भक्ति मुख्यतः संतसज्जनों की और भगवान् की कृपा से प्राप्त होती है। नारद कहते हैं कि भक्त ने एकांतवास करना चाहिये । योगक्षेम की चिंता नहीं करनी चाहिये। धन के विचार और दंभ तथा मद से भक्त दूर रहे। उसी प्रकार अहिंसा तथा सत्य, पावित्र्य, दया, ईश्वरनिष्ठा आदि गुणों का विकास भक्त ने अपने अंतःकरण में करना चाहिये, किसी से भी वह वाद-विवाद न करे और दूसरों की निंदा की ओर भी ध्यान न दे। ईश्वर का गुण वर्णन, उनके दर्शन की व्याकुलता उनकी प्रतिमा का पूजन, उनका ध्यान, सेवा, सख्य, प्रेम, पतिव्रता जैसी भक्ति आत्मनिवेदन, परमेश्वर से ऐक्य और परमेश्वर विरह का दुःख ही नारदजी द्वारा कथित भक्ति के 11 प्रकार हैं । फिर नारद ने प्रस्तुत विषय का समारोप करते हुए बतायापूर्ण समाधान प्राप्त होता है और समस्त वासनाएं नष्ट होती हैं। भक्त स्वयं के साथ ही दूसरों का भी उद्धार करता है। अन्य किसी भी बात में भक्त को आनंद और उत्साह का अनुभव नहीं हुआ करता। भक्त को आध्यात्मिक स्थैर्य व शांति प्राप्त होती है। नारदीयभक्तिसूत्र - भाष्यम् - ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । प्राप्तिस्थान विश्वसंत साहित्य प्रतिष्ठान, सिव्हिल लाइन्स, नागपुर। नारदशिक्षा ले. नारद । 1 ) संगीत शास्त्र से संबंधित एक ग्रंथ । इसकी रचना ईसा की 10 वीं और 12 वीं शताब्दियों के बीच हुई होगी। किंतु इस ग्रंथ का संबंध, पौराणिक नारद से तनिक भी नहीं है। नाट्यशास्त्र में वर्णित राग-पद्धति की अपेक्षा इस ग्रंथ की रागपद्धति में अनेक सुधार परिलक्षित होते हैं। संगीतरत्नाकर ग्रंथ इस ग्रंथ के बाद का है। उसका नारदशिक्षा से कुछ बातों में मतभेद है। इस ग्रंथ के दो भाग अध्यायों में विभाजित हैं। यज्ञविधि के सामगान की चर्चा इसमें होने से वैदिक तथा तदुदत्तरकालीन संगीत को जोडने वाली यह रचना मानी जाती है। इस पर शुभंकर (ई.17 वीं शती) की टीका है। शुभंकर के ग्रंथ है संगीतदामोदर, रागनिरूपण एवं पंचमसारसंहिता । 160 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - I 2) व्याकरणविषयक अनेक शिक्षाओं में से एक। इस नारद शिक्षा में सामगान तथा लौकिकगान के नियम दिये गये हैं। नारदशिल्पशास्त्रम् (नारदशिल्पसंहिता) संस्कृत संशोधन विद्यापीठ, मैसूर के प्रमुख जी. आर. जोशियर द्वारा प्रकाशित । इसमें 83 विषयों का अन्तर्भाव है। ग्राम, नगर, दुर्ग तथा घरों के अनेक प्रकार वर्णित इसके व्यतिरिक्त स्तम्भ, प्रासाद आदि का शिल्प शास्त्रीय विवरण | नारदसंगीतम् - बडोदा से प्रकाशित । नारदस्मृति ईसा की 5 वीं अथवा 6 वीं शती का एक स्मृति ग्रंथ । याज्ञवल्क्य और पराशर ने धर्मशास्त्रकारों की सूचि में नारद का नाम नहीं दिया, किन्तु विश्वरूप ने धर्मशास्त्रविषयक प्रथम दस ग्रंथकारों में नारद का उल्लेख किया है। प्रस्तुत स्मृति का प्रास्ताविक भाग गद्यमय है। शेष भाग श्लोकात्मक है। इसमें 18 प्रकरण और कुल श्लोकसंख्या है 1528 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - इनमें से 50 श्लोक नारद और मनु के एक जैसे हैं । इस स्मृति के लगभग 700 श्लोक विभिन्न निबंधग्रंथों में उद्धृत किये गये हैं। श्री विश्वरूप ने भी इस स्मृति के लगभग 50 श्लोक अपने ग्रंथ में लिये हैं। आचार, श्राद्ध व प्रायश्चित्त विषयक विवेचन में हेमाद्रि के चतुर्वर्गचिंतामणि स्मृतिचंद्रिका, पराशर - माधवीय तथा बाद के अन्य निबंधग्रंथों में भी नारद के अनेक श्लोक लिये गये है। नारद और मनु का संबंध अत्यंत निकट का है । यह संबंध श्री. विलियम जोन्स ने अपनी मनुस्मृति की प्रस्तावना में स्पष्ट किया है। ऐसा कहा जा सकता है कि नारदस्मृति मनुस्मृति के व्यवहाराध्याय (9 वें अध्याय) की संक्षिप्त आवृत्ति ही है स्वायंभुव मनु ने जो मूल धर्मग्रंथ लिखा, उसी को आगे चलकर भृगु, नारद, बृहस्पति, और आंगिरस ने विस्तृत किया । नारदस्मृति की जो प्रति नेपाल में मिली है, उसके अंत में " इति मानवधर्मशास्त्रे " ये शब्द हैं। मनुस्मृति के कतिपय अध्यायों की सामग्री नारद स्मृति में ज्यों की त्यों मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मदेश में “धमत्थत्सं" नामक जो कानून हैं वे मनुस्मृति के ही आधार पर बनाये गये हैं किन्तु तदंतर्गत अनेक कानून मनुस्मृति में नहीं, नारदस्मृति में मिलते हैं। नारद ने अपनी स्मृति के प्रास्ताविक भाग में व्यवहार - मातृक अर्थात् न्यायदान विषयक सामान्य तत्त्वों के साथ ही न्यायसभा के बारे में भी जानकारी दी है। पश्चात् उन्होंने क्रमशः कानून के जो विषय दिये हैं, वे इस प्रकार हैं : For Private and Personal Use Only " 2 ऋणादान (कर्ज की वसूली) उपनिधि ( धरोहर, कर्ज व रेहन ) संभूयसमुत्थान ( उद्योग धंदों की भागीदारी) दत्ताप्रदानिक ( दिया हुआ दान वापस लेना) अभ्युपेत्य अशुश्रूषा (नौकरी के करार का उल्लंघन ) वेतनस्य अनपाकर्म (नौकर चाकरों को वेतन न देना), अस्वामिविक्रय (स्वामित्व न होते हुए भी किसी वस्तु का विक्रय करना), विक्रयासंप्रदान ( वस्तु का
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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