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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर अपने आसन से खडा होगा उसे द्वादश सुवर्ण भार का दंड होगा। वह कृष्ण का अपमान करने के लिये, चीरकर्षण के समय का द्रौपदी का चित्र देखता है, भीम, अर्जुन आदि की तत्कालीन भाव-भंगियों पर व्यंग करता है। कृष्ण के प्रवेश करते ही सभासद सहसा उठ खडे हो जाते हैं, तब दुर्योधन उन्हे दंड का स्मरण कराता है पर घबराहट के कारण स्वयं गिर जाता है। श्रीकृष्ण अपना प्रस्ताव रखते हुए पांडवों का आधा राज्य मांगते हैं। दुर्योधन पूछता है, मेरे चाचा पांडु तो स्त्री-समागम से विरत रहे, तो फिर दूसरों से उत्पन्न पुत्रों का दायाद्य कैसा? इस पर कृष्ण भी वैसा ही कटु उत्तर देते हैं। दोनों का उत्तर-प्रत्युत्तर बढता जाता है व दुर्योधन उन्हें बंदी बनाने का आदेश देता है पर किसी का साहस नहीं होता। तब दुर्योधन उन्हें पकडने के लिये स्वयं आगे बढ़ता है पर अपना विराट रूप प्रकट कर कृष्ण उसे स्तंभित कर देते हैं। कृष्ण क्रुद्ध होकर सुदर्शन चक्र का आवाहन करते हैं व उसे दुर्योधन का वध करने का आदेश देते हैं पर वह उन्हें वैसा करने से रोकता है। श्रीकृष्ण शांत हो जाते हैं। जब वे पांडव शिबिर में जाने लगते हैं तब धृतराष्ट्र आकर उनके चरणों में गिर पडते हैं और कृष्ण के आदेश से लौट जाते हैं। पश्चात् भरतवाक्य के बाद प्रस्तुत नाटक की समाप्ति हो जाती है। दूतवाक्य में दो चूलिकाएं है। व्यायोग का नायक गर्वीला होता है, और कथा ऐतिहासिक होती है। इसमें स्त्री-पात्रों का अभाव होता है व युद्धादि की प्रधानता होती है। "दूत-वाक्य" में व्यायोग के सभी लक्षण हैं। संपूर्ण नाटक में वीर रस से पूर्ण वचनों की रेलचेल है। पांडवों की ओर से कौरवों के पास जाकर कृष्ण के दूतत्व करने में “दूतवाक्य' नाटक के नामकरण की सार्थकता सिद्ध होती है। दूतवाक्यचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद। दूताङ्गदम् - दूताङ्गद को विद्वानों ने "छायानाटक' माना है। किन्तु इसमें एक ही अंक है, अतः इसे व्यायोग मानना अधिक उचित लगता है। संक्षिप्त कथा - इस नाटक का आरंभ श्रीराम के दूत के रूप में अंगद के लंका में जाने की घटना से होता है। बिभीषण मन्दोदरी और माल्यवान् द्वारा समझाये जाने पर भी रावण सीता को लौटाना नहीं चाहता। अंगद, राम की प्रशंसा रावण के सामने करता है। रावण क्रुद्ध होकर उसे भगा देता है। रावण, नेपथ्य से राक्षसों के संहार की सचना पाकर युद्ध के लिए जाता है। बाद में गंधवों के द्वारा रावण तथा उसकी सेना के विनाश की सूचना दी जाती है। राम सपरिवार पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या लौटते हैं। इस नाटक में अर्थोपक्षेपण के लिए चूलिकाओं का प्रयोग किया गया है जिनकी संख्या तीन है। दृक्कर्मसारिणी - ले, दिनकर । विषय- ज्योतिषशास्त्र । देवताध्याय-ब्राह्मणम् - यह सामवेद का ब्राह्मण है। सामवेदीय सभी ब्राह्मण ग्रंथों में यह छोटा है। यह 3 खंडों में विभाजित है। प्रथम खंड में सामवेदीय देवताओं के नाम निर्दिष्ट हैं यथा अग्नि, इन्द्र, प्रजापति, सोम, वरुण, त्षटा, अंगिरस्, पूषा, सरस्वती व इंद्राग्नी। द्वितीय खंड में छंदों के देवता का वर्णन तथा तृतीय खंड में छंदों की निरुक्तियों का वर्णन है। इसकी अनेक निरुक्तियों को यास्क ने भी ग्रहण किया है। इसका प्रकाशन तीन स्थानों से हो चुका है- 1) बर्नेल द्वारा 1873 ई. में प्रकाशित 2) सायणभाष्य सहित जीवानंद विद्यासागर द्वारा संपादित व कलकत्ता से 1881 ई. में और 3) केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति से 1965 ई. में प्रकाशित । देवतापूजनक्रम - ले. अनन्तराम। मन्त्रमहोदधि के अनुसार श्लोक- 40011 देवदर्शिसंहिता - ले. चिदानन्दनाथ । सर्वसम्मोहिनी - तन्त्रान्तर्गत । देवदासप्रकाश (या ग्रंथचूडामणि) - ले.देवदास मिश्र। पिता- अर्जुनात्मज नामदेव। गौतमगोत्रीय। विषय- श्राद्ध आदि । यह निबंध कल्पतरु, कर्क, कृत्यदीप, स्मृतिसार, मिताक्षरा कृत्यार्णव पर आधृत है। 1350-1500 ई. के बीच इसकी रचना मानी जाती है। देवदूतम् (कमलासन्देश) - ले. सुधाकर शुक्ल। प्राचार्य शासकीय उच्चस्तर माध्यमिक विद्यालय, बसई (म.प्र.) प्रस्तुत दूतकाव्य में एक देवदूत द्वारा स्वर्गीय कमला गांधी का अपने पति पंडित जवाहरलाल तथा कन्या इंदिरा के प्रति अत्यंत सद्भावपूर्ण संदेश, कवि ने मंदाक्रांता छंद के 77 श्लोकों में निवेदन किया है। प्रस्तुत दूतकाव्य हिंदी गद्यानुवाद के साथ दतिया (म.प्र.) से प्रकाशित हुआ। पं. सुधाकर शुक्ल को गांधीसौगन्धिकम् नामक 20 सर्गो के महाकाव्य पर अ. भा. संस्कृत साहित्य सम्मेलन के पटना अधिवेशन में प्रथम पुरस्कार मिला था। देवनन्दसमुद्यम् - ले. जैन मुनि मेघविजयगणि। इस सप्तसर्गात्मक काव्य में विजयदेव सूरि का चरित्र वर्णन किया है। देवप्रतिष्ठातत्त्व (या प्रतिष्ठातत्त्व) - ले. रघुनन्दन । देवप्रतिष्ठाप्रयोग - ले. श्यामसुन्दर । गंगाधर दीक्षित के पुत्र । देवबन्दी वरदराज - मूल तमिल कथा का अनुवाद । अनुवादकडॉ.वे. राघवन्। देवभाषा-देवनागराक्षरयोः उत्पत्ति - ले. द्विजेन्द्रनाथ गुहचौधरी । देवयाज्ञिकपद्धति (यजर्वेदीय) - ले. देवयाज्ञिक। देवलस्मृति - यह ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में उपलब्ध नहीं है। इसी नाम का एक 90 श्लोकों का ग्रंथ मुद्रित है किन्तु चरित्र कोशकार श्री. चित्रावशास्त्री के मतानुसार, वह अन्य स्मृतियों से केवल प्रायश्चित्त विषयक श्लोक चुनकर किया गया संग्रह होगा। साथही पर्याप्त अर्वाचीन भी होगा। मिताक्षरा, हरदत्त का विवरण नामक ग्रंथ, स्मृति-चंद्रिका व अपरार्क संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 141 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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