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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभिप्राय को अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से विरचित हैं । दूसरे प्रकार की टीकाओं में विट्ठलनाथजी की टिप्पणी या विवृति नितांत विश्रुत है। सुबोधिनी के गूढ स्थलों की सरल अभिव्यक्ति के लिये ही इसका प्रणयन हुआ था। यह टीका दशम् स्कंध पर 32 वें अध्याय तक, भ्रमर गीत, वेद-स्तुति एवं द्वादश स्कंध के कतिपय श्लोकों पर लिखी गई है। पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों का भागवत से समर्थन एवं पुष्टिकरण करने हेतु लिखी गई इस प्रगल्भ टीका में श्रीधरी तथा विशिष्टाद्वैती व्याख्याओं के अर्थ का स्थान-स्थान पर खण्डन किया गया है। ले- घनश्याम (ई. 1700-1750 ) डमरुकम् (प्रहसन ) तंजौरनरेश तुकोजी का मंत्री समाज की आत्मवंचनामयी प्रवृत्ति पर व्यंग | उदात्त प्रवृत्ति की प्रशंसा । अप्रचलित नाट्यशिल्प । दस अलंकार । प्रत्येक में लगभग दस श्लोक । संगीतमयी शैली, सन् 1939 में मद्रास से प्रकाशित । तकारादिस्वरूपम् श्रीबालाविलास- तन्त्रान्तर्गत। देवी-ईश्वर संवादरूप । श्लोक 312 विषय- तकरादिपदों से तारा देवी की स्तुति इस सहस्रनाम स्त्रोत्र का पुरश्चरण, फल इ. तक्ररामायणम् - ले. भैयाभट्ट । पिता- कृष्णभट्ट । रचना ई. 1628 में विषय- काशीस्थित राम का वर्णन । तटाटकापरिणयम् ले. म/म. गणपति शास्त्री, वेदान्तकेसरी । तत्त्वगुणादर्श - (चम्पू) ले. अण्णयाचार्य । समय- ई. 17-18 वीं शती पिता श्रीदास ताताचार्य पितामह अण्णयाचार्य, जो श्रीशैल - परिवार के थे। इस चंपू में जयविजय संवाद द्वारा शैव वा वैष्णव सिद्धान्तों के गुण-दोषों की चर्चा की गई है। तत्त्वार्थ-निरूपण एवं कवित्व चमत्कार दोनों का सम्यक् निदर्शन इस काव्य में किया गया है। तत्त्वचन्द्र - ले. जयन्त । शेषकृष्ण की प्रक्रियाकौमुदी की टीका । तत्त्वचिन्तामणि ले. पूर्णानन्द यति । सन 1577 में लिखित । प्रकाश 6। छठे प्रकाश के (जिसका नाम योगविवरण या षट्चक्रनिरूपण है) सन 1856, 1860 तथा 1891 में कलकत्ते से 3 संस्करण प्रकाशित हो चुके । तत्त्व- चिंतामणि - ले. गंगेश उपाध्याय । न्यायदर्शन के अंतर्गत नव्यन्याय नामक शाखा के प्रवर्तक तथा विख्यात मैथिल नैयायिक । इस ग्रंथ की रचना ने न्यायदर्शन में युगांतर का आरंभ किया और उसकी धारा ही पलट दी थी। प्रस्तुत ग्रंथ की रचना 1200 ई. के आसपास हुई। इस ग्रंथ में 4 खंड हैं जिसमें प्रत्यक्षादि 4 प्रमाणों का पृथक् पृथक् खंडों में विवेचन है। मूल ग्रंथ की पृष्ठसंख्या 300 है पर इस पर रची गई टीकाओं की पृष्ठसंख्या 10 लाख से भी अधिक मानी जाती है। इस पर पक्षधर मिश्र (13 वें शतक का अंतिम चरण) ने "आलोक" नामक टीका की रचना की है। गंगेश के पुत्र वर्धमान उपाध्याय ने भी अपने पिता की इस कृति पर टीका लिखी है जिसका नाम "प्रकाश" है । 118 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड तत्त्वचिन्तामणि- आलोक - विवेक- ले. रघुदेव न्यायालंकार । तत्त्वचिन्तामणि- टीका ले. भवानन्द सिद्धान्तवागीश । तत्त्वचिन्तामणि- टीकाविचारले. हरिराम तर्कयागीश । तत्त्वचिन्तामणि- दर्पण ले. रघुनाथ शिरोमणि । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिगृहार्थविद्योतनम् ले. जयराम - - न्यायपंचानन । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिटीका ले रामभद्र तर्कवागीश। तत्त्वचिन्तामणि दीधितिपरीक्षा - ले. रुद्र न्यायवाचस्पति । तत्त्वचिन्तामणि- प्रकाशटीका ले. धर्मराजाध्वरीण । तत्त्वचिन्तामणि- दीधितिप्रकाशिका ले. सिद्धान्तवागीश (2) ले. गदाधर भट्टाचार्य । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिप्रकाशिका (जागदीशी) जगदीश तकलंकार । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिप्रसारिणी भट्टाचार्य । तत्त्वचिन्तामणि- मयूख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - For Private and Personal Use Only - भवानन्द - ले. जगदीश तर्कालेकार । तत्त्वचिन्तामणिरहस्यम् ले. मथुरानाथ तर्कवागीश । तत्त्वचिन्तामणिव्याख्या से गदाधर भट्टाचार्य तत्त्वज्ञानतरंगिणी - ले. ज्ञानभूषण। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती । तत्त्वत्रयप्रकाशिका - ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 16 वीं शती । तत्त्वदीपनम् - रचयिता- अखण्डानन्द सरस्वती श्रीमत्शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त की इसमें चर्चा की गयी है। तत्त्वदीपिका (1) ले. सदानन्दनाथ । अष्टाध्यायी की वृत्ती । (2) ले. रामानन्द । सिद्धान्त कौमुदी की हलन्त स्त्रलिंग प्रकरण तक व्याख्या । ले. ले. कृष्णदास सार्वभौम तत्त्व-दीपिका से श्रीनिवास ई. 19 वीं शती पूर्वार्ध - सिद्धान्त प्रतिपादन की दृष्टि से भागवत के दो स्थल विशेष महत्त्व रखते हैं। प्रथम है- ब्रह्मस्तुति ( भाग- 10-14 ) तथा द्वितीय है वेद-स्तुति ( भाग 10-87) | प्रस्तुत तत्त्व दीपिका इन दोनों स्तुतियों के तत्त्वों की दीपन करने वाली है तथा अपनी पुष्टि में श्रुतियों के वाक्यों का प्रचुर मात्रा में उल्लेख करती है। इस टीका में विशिष्टद्वैत के द्वारा उद्भावित दार्शनिक तथ्यों का निर्धारण भागवत के पद्यों से बड़ी गंभीरता के साथ किया गया है। इस टीका के प्रणेता श्रीनिवास सूरि गोवर्धन स्थित पीठ के अधिपति श्री रंगदेशिक के गुरु थे। प्रस्तुत टीका प्रकाशित हो चुकी है और उपलब्ध भी है। वेदस्तुति टीका के आरंभ में स्पष्टतया कहा गया है कि सुदर्शनसूरि की लघुकाय व्याख्या को विस्तृत करने के उद्देश्य से प्रस्तुत टीका का प्रणयन किया गया है।
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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