SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के अवसर पर हुआ। इस अध्यात्मपर प्रतीक नाटिका में शृङ्गार रस का पुट दिया है। कथासार- नायक जीव अपनी प्रौढा नायिका "बुद्धि" से खिन्न होकर 'जीवन्मुक्ति" की ओर आकृष्ट होता है। बुद्धि के पिता अज्ञानवर्मा अपने कामादि छह सेवकों को नियुक्त करते हैं कि जीव जीवन्मुक्ति की ओर प्रवृत्त न होने पाये। दयादि आठ आत्मगुण जीव को उन षड्रिपुओं से बचाने में कार्यरत होते हैं। भक्ति बुद्धि के पास जीवन्मुक्ति का चित्र ले जाती है, जिसे देख बुद्धि पहचानती है कि यही तो मेरी सखी है। फिर जीव का विवाह जीवन्मुक्ति के साथ होता है। जीवयात्रा - अनुवादक- महालिंगशास्त्री। शेक्सपियर के मैकबेथ नाटक का अनुवाद। जीवसंजीवनी (रूपक) - ले. वेंकटरमणाचार्य (श. 20) सन 1945 में प्रकाशित प्रतीक रूपक। इसमें नायक जीव, और नायिका संजीवनी औषधि है। नाटक के माध्यम से आयुर्वेद के तत्त्व विशद किए हैं। जीवसिद्धि - ले. समन्तभद्र । जैनाचार्य । ई. प्रथम शती अन्तिम भाग। पिता- शान्तिवर्मा। जीवानंदनम् - एक प्रतीक-नाटक। ले. आनंदराय मखी। ई. 18 वीं शती के दाक्षिणात्य पंडित। सात अंकों वाले इस नाटक में पांडुरोग, उन्माद, कुष्ठ, गुल्म, कर्णमूल आदि रोगों को पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सुदृढ शरीर में ही सुदृढ मन का वास होता है, और उन्हीं के द्वारा आत्मकल्याण साध्य हुआ करता है, यह बात पाठकों व दर्शकों को बताना ही इस नाटक का उद्देश्य है। जीवितवृतान्त - ले.चन्द्रभूषण शर्मा। विषय- आचार्य बेचनराम का चरित्र। जैत्रजैवातृकम् (रूपक)- ले. नारायण शास्त्री। 1860-1911 ई.। वाणी मनोरंगिणी मुद्राक्षर शाला, पुंगनूर से प्रकाशित। सम्पादक- नारायण राव। विषय- सूर्यद्वारा चन्द्र पर विजय की कथा । अन्त में दोनों समान रूप से रात्रि के प्रणयी बताए हैं। जैनमतभंजनम् - ले. कुमारिल भट्ट। ई. 7 वीं शती। जैनमेघदूतम् - कवि- मेरुतुंगाचार्य। समय ई. 14 वीं शती। "जैनमेघदूत' में जैन आचार्य नेमिनाथजी के पास उनकी पत्नी राजीमती के द्वारा प्रेषित संदेश का वर्णन है। जब नेमिनाथजी मोक्षप्राप्ति के लिए घरद्वार त्याग कर रैवतक पर्वत पर चले गए तो उस समाचार को प्राप्त कर उनकी पत्नी मूर्छित हो गयी। उन्होंने विरह से व्यथित होकर अपने प्राणनाथ के पास संदेश भेजने के लिये मेघ का स्वागत व सत्कार किया। सखियों ने उन्हें समझाया और अंततः वे वीतराग होकर मुक्तिपद को प्राप्त कर गईं। छंदों की संख्या 196 है। संपूर्ण काव्य को 4 सों में विभक्त किया गया है। अलंकारों की भरमार व श्लिष्ट वाक्यरचना के कारण प्रस्तुत काव्य दुरूह हो गया है। इसका प्रकाशन जैन आत्मानंद सभा भावनगर से हो चुका है। जैन शाकटायन-व्याकरणम् - रचयिता- पाल्यकीर्ति । जैनाचार्य । इसमें वार्तिक इष्टियां नहीं हैं। इंद्र-चन्द्रादि आचार्यों के आधार पर केवल सूत्र हैं। इसने अपनी रचना में प्रक्रियानुसारी रचना का सूत्रपात किया है। आगे चल कर इसके कारण व्याकरण शास्त्र दुरूह हो गया। पाल्यकीर्ति ने स्वयं अपने शब्दानुशासन की वृत्ति लिखी है। नाम- अमोघा वृत्ति। यह अत्यंत विस्तृत है (18000 श्लोक)। श्रीप्रभाचन्द्र ने अमोघावृत्ति पर न्यास नाम की टीका रची है। जैनेन्द्र व्याकरण पर न्यास टीका करने वाला प्रभाचन्द्र यही है या अन्य यह विवाद्य है। न्यास के केवल दो अध्याय उपलब्ध हैं। जैनेन्द्रप्रक्रिया - ले. वंशीधर। इसके उत्तरार्ध में धातुपाठ की व्याख्या है। जैनेन्द्रव्याकरणम् - रचयिता देवनन्दी। अपर नाम पूज्यपाद तथा जिनेन्द्र। इसके दो संस्करण हैं। औदीच्य 3000 सूत्र, 2) दाक्षिणात्य, 3700 सूत्र। औदीच्य के संस्करण की वृत्ति में वार्तिक हैं जो दाक्षिणात्य संस्करण मे सूत्रान्तर्गत हैं। औदीच्य संस्करण पूज्यपाद कृत मूल ग्रंथ है तथा दाक्षिणात्य संस्करण परिष्कृत रूपान्तर है। अल्पाक्षर संज्ञाएं इसका वैशिष्ट्य है। परंतु जैनेन्द्र व्याकरण का लाघव शब्दकृत होने से वह क्लिष्ट है। पाणिनीय लाघव अर्थकृत है। इसका आधारभूत शास्त्र पाणिनीय तन्त्र है। चान्द्रव्याकरण से भी साहाय्य लिया है। औदीच्य संस्करण की वृत्तियों के लेखक देवनन्दी (जैनेन्द्र-न्यास) अभयनन्दी (महावृत्ति) प्रभाचन्द्राचार्य शब्दाम्भोज-भास्करन्यास महती व्याख्या), महाचन्द्र (लघु जैनेन्द्रवृत्ति ) आर्य श्रुतकीर्ति (पंचवस्तुप्रक्रिया ग्रंथ) तथा वंशीधर (जैनेन्द्रप्रक्रिया)। दाक्षिणात्य संस्करण का नाम शब्दार्णव व्याकरण है। शब्दार्णव का व्याख्यान सोमदेव सूरि (चन्द्रिका) तथा अज्ञात लेखक द्वारा (शब्दार्णव) हुआ है। जौमर व्याकरण- परिशिष्ट - रचयिता- गोपीचंद्र औत्यासनिक । जुमरनन्दी के जौमेर व्याकरण के खिलपाठ पर भी टीका रचित है। लन्दन में हस्तलेख सुरक्षित है। गोपीचन्द्र की टीका के व्याख्याकार हैं : 1) न्यायपंचानन, 2) तारक-पंचानन (दुर्घटोद्घाट) 3) चन्द्रशेखर विद्यालंकार, 4) वंशीवादन, 5) हरिराम, 6) गोपाल चक्रवर्ती। इस व्याकरण का प्रचलन पश्चिम बंगाल में विशेष है। जैमिनीयब्राह्मणम् - यह “सामवेद" का ब्राह्मण है, जो पूर्ण रूप से अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। यह ब्राह्मण विपुलकाय व योगानुष्ठान के महत्त्व का प्रतिपादक है। डॉ. रघुवीर द्वारा संपादित यह ब्राह्मण, 1954 ई. में नागपुर से प्रकाशित हो चुका है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 115 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy