SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पी जाऊंगा उदर में स्थित जगत् की रक्षा के लिए वह कालकूट शिवजी कंठ में स्थापित है। फिर नारदादि मुनि मंगल गान करते हैं। अन्त में ग्रंथ श्रीत्यागेश साम्बशिव को अर्पित है। चन्द्रापीडचरितम् - व्ही.अनन्ताचार्य कोडम्बकम्। चन्द्राभिषेकम् - ले. बाणेश्वर विद्यालंकार। रचनाकाल - सन 1740। बर्दवान के राजा चित्रसेन के आदेश से कुसुमाकरोद्यान में अभिनीत । अंकसंख्या- सात। छायातत्त्व तथा कपट नाटक प्रयोग। स्त्रियों की भूमिकाएं नगण्य । ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण । नीति तथा वैराग्य का उपदेश। कथासार - योगीन्द्र सम्पन्नसमाधि के दो शिष्य हैं, विनीत और दान्त। विद्याप्राप्ति के बाद वे गुरु से अनुरोध करते हैं कि वे गुरुदक्षिणा मांगे। गुरु चौदह कोटी सुवर्ण मुद्रा मांगते हैं। दोनों शिष्य विंध्यवासिनी देवी की आराधना करते हैं। देवी प्रसन्न होती है कि तुम्हारे गुरु ही तुम्हें दक्षिणा प्राप्ति का उपाय बतायेंगे। शिष्य गुरु के पास आते हैं। गुरु उन्हे उपाय बताते हैं कि आजसे पांचवे दिन राजा नन्द मरेगा। विनीत वहां जाकर कहे कि मै संजीवन औषधि से राजा को पुनर्जीवित करता हूं। मै उसके शरीर में प्रवेश करूंगा। इस बीच मेरे निष्प्राण कलेवर की रक्षा दान्त करता रहेगा। जीवदान के लिए राजा नन्द के रूप में तुम्हे चौदह कोटि सुवर्ण मुद्राएं अर्पण करूंगा। फिर में मृगया के लिए यहां आकर देह त्यागूंगा और पुनः अपने शरीर में प्रवेश करूंगा। . इस प्रकार सब होने पर नन्द का मन्त्री शक्रटार को ज्ञात होता है कि राजा के शरीर में किसी योगी ने प्रवेश किया है। वह नन्द को जीवित रखने का उपाय सोचता है कि प्रविष्ट योगी के वास्तविक शरीर को नष्ट करना पडेगा। वह सेवक को आज्ञा देता है कि वह विनीत पर दृष्टि रखे। __फिर वह आज्ञा करता है कि कहीं भी कोई शव दिखे तो उसे जलाया जाये। जिसके क्षेत्र में शव दिखाई देगा उसे प्राणदण्ड दिया जायेगा। योगीन्द्र का कलेवर जला दिया जाता है। सन्तप्त विनीत शाप देता है कि जिसने कर्म किया, उसका सपरिवार विनाश हो। बाद में राजा के चोले में गुरु को भी यह सब विदित होता है। शटकार सोचता है कि शोक के कारण राजा कहीं मर न जाय। वह उसके पैरों पड कर बताता है कि राज्य को सनाथ रखने हेतु ही उसने यह कार्य किया है। यहां राक्षस नामक बालक, जिसे राजा ने संवर्धित किया था, शकटार को सकुटुब्म बन्दी बना कर स्वयं मन्त्री बनता है। उन्हें तीन दिन में एक की बार सत्तू व जल दिया जाता है। कुछ ही दिनों में शकटार छोड परिवार के अन्य सभी सदस्य मर जाते हैं। एक दिन राजा के एक कठिन प्रश्न का उत्तर पाने के हेतु रानी शकटार से मिलती है। उत्तर सुनकर राजा चकित होता है। उसे पता चलता है कि यह उत्तर शकटार ने दिया। उसकी बुद्धि से प्रभावित राजा उसे बन्दीगृह से छुडा कर फिर मंत्री बनाता है, परन्तु शकटार अब बदला लेने के लिए चाणक्य से मिलता है और दोनो मिल कर नन्दों को नष्ट कर चंद्रगुप्त मौर्य को राजा बनाते हैं। चन्द्रालोक - ले. आचार्य जयदेव। ई. 13 वीं शताब्दी। काव्य-शास्त्र का एक सरल एवं लोकप्रिय ग्रंथ। इसमें 294 श्लोक एवं 10 मयूख हैं। इसकी रचना अनुष्टुप् छंद में हुई है जिसमें लक्षण एवं लक्ष्य दोनों का निबंध है। प्रथम मयूख में काव्यलक्षण, काव्य-हेतु, रूढ, यौगिक शब्द आदि का विवेचन है। द्वितीय मयूख में शब्द एवं वाक्य के दोष तथा तृतीय में काव्य-लक्षणों (भरतकृत "नाट्य-शास्त्र" में वर्णित) का वर्णन है। चतुर्थ मयूख में 10 गुण वर्णित हैं और पंचम मयूख में 5 शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों का वर्णन है और अंतिम दो मयूखों में लक्षणा एवं अभिधा का विवेचन है। इस ग्रंथ की विशेषता है एक ही श्लोक में अलंकार या अन्य विषयों का लक्षण देकर उसका उदाहरण प्रस्तुत करना। इस प्रकार की समासशैली का अवलंब लेकर आचार्य जयदेव ने ग्रंथ को अधिक बोधगम्य व सरल बनाया है। "चन्द्रालोक" में सबसे अधिक विस्तार अलंकारों का है। इसमें 17 नवीन अलंकारों का वर्णन है। उन्मीलित, परिकराङ्कुर, प्रोढोक्ति, संभावना, परहर्ष, विषादन, विकस्वर, विरोधाभास, असंभव, उदारसार, उल्लास, पूर्वरूप , अनुगुण, अवज्ञा, पिहित, भाविकच्छवि एवं अन्योक्ति। हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों के लिये यह ग्रंथ मुख्य उपजीव्य था। इस युग के अनेक आलंकारिकों ने इसके पद्यानुवाद किये हैं। चंद्रालोक पर अनेक टीकाएं हैं। प्रद्योतन भट्टकृत शरदागम, वैद्यनाथ पायगुंडेकृत रमा, गागाभट्टकृत राकागम, विरूपाक्षकृत शरद-शर्वरी, वाजचंद्रकृत चंद्रिका एवं चंद्रालोकदीपिका आदि। अप्पय दीक्षित कृत "कुवलयानंद" एक प्रकार से "चंद्रालोक" के पंचममयूख की विस्तृत ख्याख्या ही है। हिंदी में चन्द्रालोक के कई अनुवाद प्राप्त होते हैं। चौखंबा विद्याभवन से संस्कृत-हिंदी टीका प्रकाशित है। चन्द्रिका (वीथि) -ले. राम पाणिवाद। ई. 18 वीं शती।. त्रिचूर से 1934 में प्रकाशित। कथासार - नायक स्वप्न में किसी सुंदरी को देख कर कामसन्तप्त होता है। विदूषक के साथ पुष्प पाकर उद्यान में • मन बहलाते समय भूर्जपत्र पर लिखा हुआ एक प्रेमसन्देश उसे प्राप्त होता है। आकाशवाणी द्वारा ज्ञान होता है कि यह संदेश लिखने वाली चन्द्रिका नायक के लिए पत्नी कल्पित की गयी है। नायक हर्षित है। इतने में नेपथ्य से सुनाई देता है कि चण्ड नाम राक्षस चन्द्रिका का अपहरण कर ले गया। नायक मूर्च्छित होता है। विदूषक उसे परामर्श देता है कि संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/105 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy