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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ने कर्मयोग द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी। लोकसंग्रह की दृष्टि से तुझे भी कर्मयोग का अवलंब करना योग्य होगा (4-20) यह आदेश भगवान देते हैं। ज्ञानकर्मसंन्यास योग नामक चौथे अध्याय में "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।4-7। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4-8 ।। इन सुप्रसिद्ध श्लोकों में अवतारवाद का सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। कर्म, अकर्म और विकर्म के ज्ञान की आवश्यकता तथा विविध प्रकार के यज्ञों में ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता प्रतिपादन की है। संन्यास और कर्मयोग दोनों भी मोक्षप्रद हैं फिर भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग की विशेषता अधिक है। ध्यानयोग नामक छठे अध्याय में आत्मसाक्षात्कार करने के लिये ध्यानयोग की साधना बताई है। ज्ञानविज्ञानयोग नामक सातवें अध्याय में परमात्म-तत्त्व के ज्ञान के लिए आवश्यक सृष्टिज्ञान बताया और फिर दैवी गुणमयी माया के जाल से मुक्त होने के लिए आर्त जिज्ञासु तथा अर्थार्थी भक्तों की सकाम भक्ति से ज्ञानयुक्त भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादन की है। अक्षरब्रह्मयोग नामक आठवें अध्याय में ब्रह्म, अध्यात्म, • कर्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधियज्ञ इत्यादि पारिभाषिक शब्दों . का विवरण करते हैं। पुनर्जन्म से मुक्ति पाने के लिए परमात्मा का स्मरण करते हुए शरीर-त्याग करने का उपाय बताया है। इसी संदर्भ में अंतिम शुक्ल और कृष्ण गति का निवेदन किया है। राजविद्या-राजगुह्य नामक नवम अध्याय में आसुरी प्रवृत्ति के लोग परमात्मस्वरूप को ठीक न पहचानने के कारण अवतारों की अवज्ञा करते हैं, परंतु दैवी प्रवृत्ति के महात्मा विविध प्रकारों से विविध स्वरूपी परमात्मा की उपासना करते हैं। • ऐसे अनन्य भक्तों के योगक्षेम की चिंता परमात्मा स्वयं करते हैं यह सिद्धान्त बताया है। यत् करोषि यदनासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ।।9-27।। इस संदेश के अनुसार परमात्मा को सर्वस्वार्पण करने वाला दुराचारी भी भक्तिमार्ग से जीवन व्यतीत करने लगे तो वह भी परमपद प्राप्त करता है, यह महान् सर्वसमावेशक सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। विभूतियोग- नामक दसवें अध्याय में समस्त चराचर सृष्टि का आदिकारण परमात्मा ही है इस भावना से उपासना करने वाले को आत्मज्ञान के लिए आवश्यक बुद्धियोग की प्राप्ति परमात्मा की कृपा से होती है यह रहस्य बताते हुए, यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत् तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवनम्।। 10-41 ।। ___ इस लोक में "विभूतियोग" का महान् सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन की इच्छा के अनुसार उसे दिव्य चक्षु देकर भगवान कृष्ण ने अपना अकल्पनीय विराट स्वरूप दिखाया, जिसे देखकर भयग्रस्त अर्जुन प्रार्थना करता है कि "तैनैव रूपेण चतुर्भुजेन । सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।" इस अध्याय में भी ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने वाला, निस्संग वृत्ति का पुरुष ही परमात्म पद की प्राप्ति करता है, यह रहस्य बताया है। भक्तियोग नामक बारहवें अध्याय में निर्गुण उपासना से सगुण उपासना की श्रेष्ठता बता कर अभ्यास से ज्ञान, ज्ञान से ध्यान और ध्यान से श्री कर्मफलत्याग को उत्तम साधना कहा है क्यों कि उसी से चित्त को निरंतर शांति का लाभ होता है। इस अध्याय के अन्त में परमात्मा को प्रिय भक्त के जो लक्षण बताए हैं वे, साधकों के लिए उत्कृष्ट मार्गदर्शक हैं। क्षेत्रक्षेत्रज्ञ- विभाग योग नामक तेरहवें अध्याय में ज्ञान के अमानित्व, अदंभित्व अहिंसा आदि ज्ञान के 26 लक्षण बताए हैं। साथ ही अनादि और सर्वव्यापि ब्रह्म ही ज्ञेय है और उसी के ज्ञान से मोक्षप्राप्ति बताई है। ___गुणत्रय-विभाग-योग-नामक चौदहवें अध्याय में सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों का विवेचन और त्रिगुणों से अतीत होने का संदेश दिया है। इस अध्याय में निवेदित गुणातीत के लक्षण भी साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। पुरुषोतम-योग नामक पंद्रहवे अध्याय में विशाल अश्वत्थ रूपक के माध्यम से अनादि-अनंत संसार का स्वरूप वर्णन कर, इस के जंजाल से छुटकारा पाने के लिए असंग-शस्त्र की आवश्यकता बताई है। इस सृष्टि के भूत-सृष्टि रूपी "क्षर" तथा कृटस्थ हिरण्यगर्भ रूपी "अक्षर" नामक दो विभागों से उत्तम पुरुष अथवा पुरुषोत्तम पृथक् है। इस क्षराक्षर विभाग तथा पुरुषोतम के ज्ञान से साधक कृतार्थ होता है। दैवासुरसंपद् विभाग नामक सोलहवें अध्याय में, अभय सत्त्वशुद्धि, दान, दया, सत्य आदि दैवी संपत्ति के मोक्षप्रद गुण तथा उस के विपरीत बंधन कारक आसुरी संपत्ति के गुणों का वर्णन करते हुए काम, क्रोध, और लोभ ये तीन नरकद्वार हैं, उनका सर्वथा त्याग करने का आदेश दिया है। सत्रहवें श्रद्धात्रय-विभाग-योग नामक अध्याय में बताया है कि यह मानव मात्र श्रद्धामय है (श्रद्धामयोयं पुरुषः) और वह अपनी सात्त्विक, राजस तथा तामस श्रद्धा के अनुसार उपासना करता है। त्रिविध श्रद्धाओं के अनुसार ही मानव के आहार, यज्ञ, दान, तप आदि व्यवहार होते हैं। गुणातीत अवस्था की प्राप्ति के लिए "ॐ तत् सत्"इस समर्पण मंत्र के साथ सारे व्यवहार करने की साधना बताई है। मोक्ष-संन्यासयोग नामक अठारहवां अध्याय उपसंहारात्मक है। संत ज्ञानेश्वर इसे "कलशाध्याय" संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 95 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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