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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य-पद पर आसीन होने के पश्चात् इन्होंने भ्रमण कर अपने मत का विपुल प्रचार किया। विशेषतः गुजरात में वल्लभ-संप्रदाय के विशेष प्रचार का श्रेय विट्ठलनाथ को ही है, जिन्होंने इस कार्य हेतु गुजरात की 6 बार यात्रा की एवं उस प्रदेश में विस्तृत भ्रमण किया। इस संप्रदाय में आज जो सेवापद्धति व्यवस्थित रूप से दिखाई देती है, उसका श्रेय भी विट्ठलनाथ को ही है। ___ इनकी पुत्र-संपत्ति भी विपुल थी। इनके 7 पुत्र हुए और उन सातों को भगवान् के 7 रूपों की सेवा तथा अर्चना का अधिकार देकर इन्होंने अपने संप्रदाय के विस्तार तथा परिवर्तन की समुचित व्यवस्था की। वल्लभ संप्रदाय में इन्हें कृष्ण का अवतार माना जाता है। विट्ठलनाथजी जिस प्रकार धर्म के आचार्य, शास्त्रों के प्रकांड पंडित तथा मुगल शासन के न्यायाधीश थे, उसी प्रकार ब्रज-भाषा के महनीय उन्नायक भी थे। इनके पिता आचार्य वल्लभ के समय तक ब्रज भाषा असंस्कृत, अपरिमार्जित और साहित्य के क्षेत्र से बहिर्भूत भाषा थी। परंतु आपके पिता तथा आपके सतत उद्योग एवं प्रोत्साहन के बल पर वह सर्वमान्य साहित्यिक भाषा बनी। ब्रज भाषा की वर्तमान साहित्य समद्धि का श्रेय भी आप दोनों को प्राप्त है। "अष्टछाप" के कवियों के रूप में प्रसिद्ध सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास तथा कृष्णदास आपके पिता वल्लभ के शिष्य थे, तो नंददास, चतुर्भुजदास, छीत स्वामी और गोविंददास आपके शिष्य थे। विट्ठलनाथ के आध्यात्मिक चरित्र का प्रभाव, तत्कालीन शासकों एवं शासनाधिकारियों पर पड़े बिना न रह सका। बादशाह अकबर पर इनका प्रभाव विशेष पडा। इसी प्रकार आपके उपदेशों से प्रभावित होकर राजा टोडरमल, राजा बीरबल, राजा मानसिंह, संगीतसम्राट तानसेन, गढा की रानी दुर्गावती, राजा रामचंद्र प्रभृति इनके शिष्य बने थे। फिर भी ये बडी उदार प्रकृति के होने के कारण, राजा से रंक तक इनकी दृष्टि समभावेन सभी पर पडती रही। स. 1647 (= 1590 ई.) की माघ शुक्ल सप्तमी को "राजभोग" के पश्चात् आप गोवर्धन की कंदरा में प्रविष्ट हो नित्य लीला में लीन हो गए। इनके ज्येष्ठ पुत्र गिरिधरजी ने इन्हें वैसा करने से रोकना चाहा, किन्तु इनका उत्तरीय वस्त्र ही उनके हाथ लग सका। उसी वस्त्र से उत्तर क्रिया करने का आदेश देकर ये अंतर्धान हो गए। उस समय "अष्टछाप" के अन्यतम कवि एवं इनके शिष्य चतुर्भुजदास वहां पर उपस्थित थे। ___ गोसाई विट्ठलनाथ जी का जीवन-चरित्र, भगवान् श्रीकृष्ण के लीला-सौंदर्य का दर्शन बोध है। (उनके पुष्टि-मार्गी सिद्धान्त में मानवता के समस्त गुणों की भावना सन्निहित है। उनका संप्रदाय काव्य, चित्रकला आदि विविध कलाओं के स्फूर्तिदाता तथा प्रोत्साहक रहा। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रणीत वैष्णव जन की परिभाषा मे ___जाति, धर्म अथवा उपासना-पद्धति की विभिन्नता, कोई मतभेद उपस्थित नहीं करती थी। इस लिये उनके सुपुत्र विट्ठलनाथजी से अलीखान, तानसेन, रसखान, ताजबीबी जैसे मुसलमानों ने भी वैष्णव दीक्षा ली थी। विद्याकर - ई. 12 वीं शती का पूर्वार्ध । “कवीन्द्र-वचन-समुच्चर" के संकलनकर्ता। बंगाल के जगद्दल मठ में निवास । विद्यातीर्थ - ई. 14 वीं शती। ये माधववर्मा व सायणाचार्य के विद्यागुरु तथा विजयनगर के राजा के आध्यात्मिक गुरु थे। ये त्रिदंडी स्वामी तथा शृंगेरीपीठ के शंकराचार्य थे। विद्यातीर्थ ने "रुद्रप्रश्नभाष्य" नामक ग्रंथ की रचना की। शृंगेरी में विजयनगर के सम्राट बुक्कराय के सहयोग से माधवाचार्य ने विद्यातीर्थ-मंदिर बनवाकर उसमें उनकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की। विद्याधर - काव्यशास्त्र के आचार्य। समय-ई. 13-14 वीं शती। इन्होंने "एकावली" नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की है जिसमें काव्य के दशांगों का वर्णन है और वे उत्कल-नरेश नरसिंह की प्रशस्ति में लिखे गये हैं। इसका प्रकाशन (श्री. त्रिवेदी रचित भमिका व टिप्पणी के साथ) मंबई संस्कत सीरीज से हुआ है। विद्याधर ने "केलिरहस्य" नामक काम-शास्त्रीय ग्रंथ की भी रचना की है। विद्याधर - ई. 17 वीं शती। रचना- "प्रतिनैषध"। श्रीहर्ष के "नैषध" महाकाव्य से प्रेरणा लेकर इस काव्य की रचना हुई। इनके सहकारी का नाम था लक्ष्मण । विद्यानिधि - ई. 17 वीं शती के संन्यासी-पंडित। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है। इनके समय में काशी व प्रयाग जाने वाले यात्रियों पर मुगल शासकों ने भारी कर लगाया था जिसे आपने बंद करवाया। शाहजहां ने इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर इन्हें “सर्वविद्यानिधि" की उपाधि से विभूषित किया। कलकत्ता की रॉयल एशियाटिक सोसायटी में इन्हें दिये मानपत्र अभी भी सुरक्षित हैं। इन काव्यमय मानपत्रों का संग्रह प्रकाशित हुआ है। विद्याधर शास्त्री (पं) - जन्म 8 अगस्त, 1901, मृत्यु 24 फरवरी 1983 | गौड ब्राह्मण। पिता- देवीप्रसाद शास्त्री (विद्यावाचस्पति)। पितामह-हरनामदत्त शास्त्री। चुरू ग्राम में जन्म। इनकी शिक्षा रामगढ, भिवाणी और लाहौर में हुई। डूंगर कालेज, बीकानेर में संस्कृत-विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए आप सन् 1956 में सेवानिवृत्त हुए। उसके बाद जीवन-पर्यन्त, बीकानेर के एक शोध संस्थान में निदेशक पद पर कार्य करते रहे। संस्कृत-भाषा और साहित्य के विकास के लिए की गई विशिष्ट सेवाओं के कारण, राष्ट्रपति द्वारा आपको सम्मानित किया गया था। उत्कृष्ट साहित्य सर्जन के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा आपको सम्मानित किया 450 / संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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