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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कहा- "राजन्, काशीतीर्थ को वे लोग ही जाते है, जो भगवान् शंकर से दूरवर्ती हों। जिसके हृदय में ही उमापति का निवास हो उसके लिये वही बड़ा तीर्थ है।" पण्डितों के काशी क्षेत्र की ओर प्रयाण करने के बाद राजा ने कालिदास से पूछा- "तुमने आज कोई वार्ता सुनी।" कालिदास ने "हां" कहते हुए कहा- "मेरु-मन्दार की गुफाओं में, हिमालय पर महेन्द्राचल पर, कैलास के शिलातल पर, मलय पर्वत के अन्यान्य भागों पर तथा सहयाद्रि पर भी चारणगण आपका ही यशोगान करते हैं ऐसा मैने सुना है"। यह उत्तर सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए तथा कालिदास को विशेष धन देकर पुरस्कृत किया। फिर भी ब्रह्मचारी के साथ कालिदास के न जाने से भोज ने सोचा कि यह कवि वेश्यालंपट होने से ही मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर, नहीं गया। इस विचार से उन्होंने आत्मग्लानि का अनुभव किया तथा कालिदास की अवज्ञा की। तब कालिदास तुरन्त धारा नगरी से प्रस्थान कर एकशिला नगरी के राजा बल्लाल की सभा में पहुंचे। वहां अपना परिचय देकर उन्होंने राजा का यशोगान किया। उससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें आश्रय दिया। एक बार राजा ने उन्हें एकशिला नगरी का वर्णन करने के लिये कहा। कालिदास ने एक श्लोक प्रस्तुत किया, जिसका भाव था "एकशिला नगरी में विचरण करनेवाले युवक स्वयं को पगपण पर बिना किसी अपराध के शृंखला - बद्ध पाते हैं क्यों कि वे हरिणी के समान नेत्रों वाली वहां की सुन्दरियों के कटाक्षों से अपने को पीडित पाते हैं यह सुनकर बल्लाल नृप बडे प्रसन्न हुए। कालिदास कथा 6 (प्रत्यागमन) कालिदास के परदेशगमन से भोज बडे दुखी थे। राजा की खिन्नता तथा कृशता देख मंत्रियों ने सोचा कि कालिदास की वापसी से ही राजा प्रसन्न होंगे। सबकी मन्त्रणा से एक अमात्य बल्लाल राज्य में कालिदास के पास पहुंचा तथा उन्हें एक पत्र दिया। उसमें था "हे कोकिल, आम्रवृक्ष पर चिरनिवास कर अन्य वृक्ष का आश्रय लेते तुम लज्जित नहीं होते। तुम्हारी वाणी तो आम्रवृक्ष पर ही शोभा देती है, न कि खैर या पलाश जैसे झाड़ों पर।" कालिदास ने पत्र पढा तथा राजा की अवस्था सुनी। फिर बल्लालनुपति से बिदा लेकर वे तुरंत मालय देश वापिस आए। राजा भोज ने अपने परिवार के साथ उनका स्वागत किया। कालिदास कथा-7 (भोजो दिवं गतः) एकबार भोज ने कालिदास से कहा- "मेरी मृत्यु का वर्णन करो" । तब कालिदास क्रुद्ध हो गए। उन्होंने राजा की निन्दा की और उनकी वेश्या विलासवती के साथ वे एकशिला नगरी को चले गए। कालिदास के विरह से उद्विग्न तथा त्रस्त राजा भी उन्हें 294 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड खोजने के लिये, कापालिक का वेश धारण कर, निकल पडे। घूमते-घूमते वे एकशिला नगरी में प्रविष्ट हुए कालिदास ने कापालिक को देखकर विनय से पूछा- "हे योगिराज, आपका निवास कहां है।" योगी ने बताया- “हम धारानगरी में रहते हैं"। तब कालिदास ने भोज की कुशल पूछी। योगी ने बताया"भोजो दिवं गतः " यह सुनते ही कालिदास भूमि पर गिर पडे तथा विलाप करने लगे। उनके मुख से श्लोक प्रस्फुटित हुआ "अद्य धारा निराधारा । निरालम्बा सरस्वती । पण्डिताः खण्डिताः सर्वे । भोजराजे दिवं गते । । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्लोक सुन योगी संज्ञाहीन होकर गिर पडा । उसे होश में लाने के प्रयास में कालिदास ने उन्हें पहचान लिया कि वह भोज ही है। होश में आने पर उनसे कहा "आपने मेरी वंचना की। फिर उक्त श्लोक को उन्होंने निम्न रूप दिया "अद्य धारा सदाधारा । सदालम्बा सरस्वती । पण्डिता मण्डिताः सर्वे । भोजराजे भुवं गते ।। " प्रसन्न हुए भोज ने उन्हें आलिंगन दिया और उन्हें साथ लेकर धारानगरी को प्रस्थित हुए। कालिदास कथा-8 (कुन्तलेश्वर दौत्य) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की कन्या प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा द्वितीय रुद्रसेन से हुआ था। राजा की मृत्यु के पश्चात् रानी प्रभावती ने अपने अल्पवयीन पुत्र को गद्दी पर बैठाया, तथा वह स्वयं कारोबार देखने लगी। उसके शासन का हाल जानने के लिये चन्द्रगुप्त ने कालिदास को विदर्भ भेजा। जब कालिदास वहां की राजसभा में उपस्थित हुए तो उन्हें उचित स्थान पर नहीं बैठाया गया। तब वे भूमि पर बैठ गए। सभासदों के हंसने पर उन्होंने भूमि का महत्त्व वर्णन किया- 'मेरु पर्वत तथा सप्त सागर इस भूमि पर ही स्थित हैं, तथा इसे शेष नाग ने अपने सिर पर धारण किया है। इस लिये मेरे समान लोगों के बैठने के लिये यही योग्य स्थान है।" तब कालिदास का उचित सम्मान हुआ। लौटकर चन्द्रगुप्त को उन्होंने बताया"हे राजन, कुन्तलेश्वर (प्रवरसेन द्वितीय) अपने शासन का सारा भार आपके ऊपर डाल कर, स्वयं विलास में मग्न हैं।" कालिदास द्वारा यह जान कर चन्द्रगुप्त ने कहा कि प्रवरसेन ऐसा ही करें। यह ठीक है। "पिबतु मधुसुगन्धीन्याननानि प्रियाणाम्। मयि विनिहितभारः कुन्तलामधीशः ।। " कालिदास कथा - 9 (लीलापुरुष) एक बार राजा भोज के सिर में दर्द प्रारंभ हुआ। उपचारों से कम होने के बदले, वह अधिकाधिक बढता गया। राजवैद्यों के उपचार निरर्थक For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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