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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में शकों का आधिपत्य था। मथुरा के शक नृपति कनिष्क (ई. 2 शती का मध्यकाल) की सभा में अश्वघोष थे। अश्वघोष ने बुद्धिचरित महाकाव्य और शारिपुत्र-प्रकरण (अथवा शारद्वतीपुत्र-प्रकरण) नामक नाटक की रचना की है। तुरफान में उपलब्ध हस्तलेखों में तीन बौद्ध नाटक मिले। उनमें से एक का अंतिम भाग सुरक्षित है। उसके अनुसार नाटक का उपर्युक्त नाम मिला। उसमें नौ अंक हैं और सुवर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष उसके रचयिता हैं। प्रस्तुत शारद्वतीपुत्र प्रकारण में शारिपुत्र और मौद्गलायन के बौद्धधर्म में दीक्षित होने की घटनाओं का वर्णन है। यह प्रकरण नाट्यशास्त्र के नियमों के अनुसार लिखा है और उसमें नौ अंक हैं। शारिपुत्र धीरोदात्त नायक हैं। नायिका के विषय में और मूल कथावस्तु के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। शारिपुत्र-प्रकरण के हस्तलेख में अन्य दो नाटकों के अंश भी मिलते हैं। यद्यपि इनके कर्तृत्व के ज्ञान के लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता, तथापि साहचर्य और शारिपुत्र-प्रकरण की सदृशता के कारण, इन्हें अश्वघोष की कृतियाँ मानना उचित समझा जाता है। इनमें से एक नाटक लाक्षणिक है, जिसमें बुद्धि, कीर्ति और धृति, पात्रों के रूप में मंच पर आती हैं। आगे चलकर बुद्ध भी रंगमंच पर आते हैं। इस लाक्षणिक नाटक के कारण प्रबोधचंद्रोदयकार कृष्णमिश्र की एतद्विषयक मौलिकता समाप्त होती है। संस्कृत का यही आद्य लाक्षणिक नाटक है। दूसरे नाटक में मगधवती नामक गणिका, कौमुधगन्ध नामक विदूषक, सोमदत्त नामक नायक, एक दुष्ट, राजकुमार धनंजय, चेटी, शारिपुत्र और मोद्गलायन इस प्रकार के पात्रों की रोचक कथा मिलती है। इस नाटक का उत्तरकालीन नाटकों से सादृश्य है। इस नाटक का लक्ष्य भी धार्मिक ही रहा होगा परंतु वह खंडित अवस्था में प्राप्त होने के कारण उसके प्रमाण नहीं मिलते। अवदानशतक (जिसका अनुवाद ई. तीसरी शताब्दी में चीनी भाषा में हो चुका था) के अनुसार कुछ दाक्षिणात्य नटों ने शांभावती नगरी से राजा की सभा में एक बौद्ध नाटक का प्रयोग किया था। उसी प्रकार बिंबिसार की सभा में एक दाक्षिणात्य नट ने, ज्ञानप्राप्ति के पूर्वकाल का बुद्धचरित्र नाट्यरूप में प्रदर्शित किया था। इस प्रकार संस्कृत के प्राचीनतम उपलब्ध नाटक बौद्ध धर्म से संबंधित थे; यह विशेष बात मानने योग्य है। भास : कालिदास ने अपने मालविकाग्निमित्र नाटक की प्रस्तावना में भास का उल्लेख (सौमिल्लक और कविपुत्र के साथ) सर्वप्रथम एक श्रेष्ठ और मान्यताप्राप्त नाटककार के रूप में किया है। भास का समय पं. गणपतिशास्त्री ने बुद्ध पूर्व माना है, कीथ 300 ई. के समीप मानते हैं और कुछ विद्वान ईसा पूर्व पहली शताब्दी का पूर्वार्ध मानते हैं। भासकृत प्रतिज्ञायौगन्धरायण नाटक में (1-18) अश्वघोष के बुद्धचरित का उल्लेख मिलने के कारण, उसका समय अश्वघोष के निश्चित ही बाद का है। कृष्णचरित नामक ग्रंथ के अनुसार भास ने 20 नाटक लिखे थे, परंतु अभी तक उनमें से 13 ही ज्ञात हुए हैं। इन नाटकों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। (अ) महाभारत पर आश्रित रूपक :- 1) ऊरूभंग 2) मध्यमव्यायोग 3) पंचरात्र, 4) बालचरित 5) दूतवाक्य 6) दूतघटोत्कच और कर्णभार (आ) रामायण पर आश्रित :- 8) अभिषेक और 9) प्रतिमा ' (इ) कथासाहित्य पर आश्रित (अथवा कविकल्पित) :- 10) अविमारक 11) प्रतिज्ञायौगन्धरायण 12) स्वप्रवासवदत्त और 13) चारुदत्त। - भास का प्रभाव उत्तरकालीन अनेक कवियों की कृतियों में स्पष्ट दीखता है। शूद्रक के मृच्छकटिक और भास के चारुदत्त (चार अंकी) में वस्तु, भाषा, वर्णन और अनुक्रम तक समानता पायी जाती है। भवभूति के उत्तरराम चरित के दूसरे अंक में, आत्रेयी के कथन पर स्वप्न-नाटक के ब्रह्मचारी वर्णन की गहरी छाप है। उत्तररामचरित के विद्याधर का वर्णन अभिषेक नाटक के वर्णन से मेल खाता है। भट्टनारायण के वेणीसंहार के पात्रों की विविधता और उदण्डता, पंचरात्र के पात्रों के समान ही है। प्रतिमा और स्वप्न नाटकों के कई उत्तम रोचक और आकर्षक तत्त्व, कालिदास के शाकुन्तल में पाए जाते हैं। प्रतिमा के वल्कलधारण की शोभा का वर्णन और जलसिंचन, शाकुन्तल नाटक में पाए जाते हैं। जैसे दुर्वासा का शाप और मारीच के आश्रम में मिलन का चण्डभार्गव का शाप और नारद के आश्रम में मिलन, इन प्रसंगों में साम्य है। स्वप्न वासवदत्त नाटक में वीणा की प्राप्ति का प्रभाव, शकुन्तला की अंगूठी की प्राप्ति के प्रसंग में दिखाई देता है। शूद्रक : प्रख्यात मृच्छकटिक प्रकरण के रचियता शूद्रक थे, जिनका परिचय उसी प्रकरण की प्रस्तावना में संक्षेपतः दिया है। परन्तु उस परिचय में उनके अग्निप्रवेश का उलल्ख होने से संदेह होता है कि कोई नाटककार अपने मरण का उल्लेख कैसे लिख सकता है। इसी कारण अनेक पाश्चात्य विद्वान मृच्छकटिक के कर्तृत्व में संदेह प्रकट करते हैं। डा. पिशेल के मतानुसार मृच्छकटिक के रचियता दण्डी हैं। "त्रयो दण्डिप्रबन्धाश्चत्रिषु लोकेषु विश्रुताः" इसी सुभाषित में दण्डी के तीन प्रबन्धों का उल्लेख किया है। उनमें दशकुमारचरित और काव्यादर्श तो सर्वविदित हैं। तीसरा प्रबन्ध मृच्छकटिक ही हो सकता है। डा. संस्कृत वाङ्मय कोश -ग्रंथकार खण्ड/225 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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